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मग्नता
दुष्टों के ही हैं । मैं तो सिर्फ उसका निमित्त बना हूँ।" वह भूलकर भी अपने भूतकालीन कार्यों को लेकर अभिमान नहीं करेगा, बड़ी-बड़ी बातें नहीं करेगा।
__ इसी तरह जीवात्मा भी युग-युगान्तर से बुरे कर्मों के चंगुल में फंसा हआ है। दुष्कर्मों ने उसमें आमूल परिवर्तन कर दिया है। स्वभाव को छोडकर विभाव में जाने के लिये उकसाया है । साथ ही उसके हाथों नानाविध गैर काम करवाये हैं । इतना ही नहीं, बल्कि उन गैर-कामों के संबन्ध में उसमें मिथ्या अभिमान की भावना भी कूट-कूट कर भर दी है । जैसे 'यह इमारत मैंने बनवायी है.... सारी दौलत मैंने कमायी है... यह ग्रंथ मैंने तैयार किया है... मेरे ही बलबूते पर सबकी ज़िन्दगी गुलजार है....।' इत्यादि । ___लेकिन परमोपकारी विश्वोद्धारक तीर्थकर भगवंत के कारण आज उसे (जीवात्मा को) बुरे कर्मों की सही परख हो गयी है। उन्होंने हमारी प्रात्मा को चविध संघ के हाथ सौंप दिया है । फलतः जीवात्मा को गुरुदेवों की अपूर्व कृपा से स्वभावदशा-ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय प्रात्मस्वरूप की प्रतीति हो गयी । उसमें रहे असीम प्रानन्द की अनुभूति हुई । परमात्मा तीर्थंकर देवों के द्वारा निर्दिष्ट जगद्-व्यवस्था और रचना समझ में आ गयी । अब भला, वह विभावदशा में किये गये कार्यों को किस दृष्टि से देखेगा ? वर्तमान में भी कई बार उसे विभावदशा के वशीभूत होकर कार्य करने पड़ते हैं । लेकिन यह करने में वह क्या अपना कर्तृत्व समझेगा ? नहीं, कभी नहीं । बल्कि वह हमेशा यह सोचेगा, 'मैं तो अपने शुद्ध गुरणपर्याय का कर्ता हूँ, ना कि परपुद्गल के गुणपर्याय का । उसमें तो मैं सिर्फ निमित्त मात्र हूँ, ज्ञाता और दृष्टा हूँ ।
परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा ।
क्वामी चामीकरोन्मादाः, स्फारा दारादरा: क्व च ॥४॥१२॥ अर्थ : परमात्मस्वरुप में लीन मनुष्य को पुद्गल-संबंधी बात नीरस लगती
है, तब भला उसे धन का उन्माद और परम सुन्दरी के मदहोश
कर देने वाले आलिंगनादिरुप आकर्षण क्यों होगा ? विवेचनः परम आत्मस्वरूप में लीन जीवात्मा की दशा मायावी संसार के प्राकृत जीवों से-प्राणियों से बिल्कुल अलग होती है। वह प्राय: आत्मा के
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