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मग्नता
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से युक्त विश्रांतिगृहों का क्षणभंगुर सुख-ऐश्वर्य और आनंद भूल जाना पड़ता है। एक बार प्रवेश मिल जाए, फिर तो श्रानंद ही आनंद ! सर्वत्र परमानन्द की शीतल छाया ही मिलेगी । असीम शान्ति की अनुभूति होगी। एक बार प्रवेश करने के पश्चाद् बाहर आने की भावना नहीं होगी और यदि निकलना भी पड़े तो शीघ्रातिशीघ्र दुबारा प्रवेश करने की आन्तरिक लगन जग पडेगी । जहाँ ज्ञानानन्द में ही पूर्ण विश्राम प्रतीत होता है और पुदगलानन्द नीरी वेठ-मजदूरी की तरह वेतुका लगता है, वही तो ज्ञानमग्नता, ज्ञानतल्लीनता है।
यस्य ज्ञानसूधासिन्धौ, परब्रहरिण मग्नता ।
विषयान्तरसंचारस्तस्य हालाहलोपमः ॥२॥१०।। अर्थ : ज्ञान रूपी अमृत के अनंत, अथाह समुद्र ऐसे परमात्मा में जो लीन है,
उसे अन्य विषयों में प्रवृत्त होना हलाहल जहर लगता है। विवेचन : जलक्रीडा करने के लिये तुमने कभी तूफानी दरिये में छलाँग लगायी है ? तैरने के इरादे से किसी जलप्रवाह/नदी में कूदे हो ? स्वीमींग बाथ (Swimming bath) में प्रवेश किया है ? तैरने के शौकोन अथवा जलक्रीडा के रसिये को समुद्र, सरोवर, नदी या स्वीमोंग बाथ में नहाने का आनंद लुटते समय यदि कोई आकर बीच में ही रोक दे अथवा उसकी क्रिया में बाधा डाल दे, तब जैसे उसे ज़हर-सा लगता है, ठीक उसी भाँति जब जीवात्मा अपने स्वाभाविक ज्ञानानन्द में सराबोर हो, पूर्ण रूप से लीन बनकर आनंद में आकंठ डूबा अठखेलियां करता हो, ऐसे प्रसंग पर यदि बीच में ही पौद्गलिक विषय घुसपैठ कर लें, तब उसे वे विषय जहर से लगते हैं । क्योंकि ज्ञानानन्द की तुलना में उसके (जीवात्मा के) लिये पौद्गलिक आकर्षण, सुख-समृद्धि आदि विषय कोई बिसात नहीं रखते । पौद्गगलिक सुख उसे मोहपाश में बाँध नहीं सकते । उसका रस भीना व्यवहार जीवात्मा के लिये नीरस और बेतुका होता है। पुदगल का मृदु स्पर्श उसमें रोमांच को लहर पैदा नहीं कर सकता । उसके मोहक सूर उसे हर्ष विह्वल करने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं । मतलब, पौद्गलिक शब्द रूप, रस, गंध और स्पर्श के टपक पड़ने पर, टकराने से वह कंपित हो उठता
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