Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 24 ज्ञानानन्द श्रावकाचार जानते हैं कि यह शरीर आहार के बिना चलता नहीं, शिथिल होगा / परन्तु हमें इससे मोक्ष स्थान पर पहुंचने का काम लेना है, इसलिये इसे आहार दे कर इसके सहयोग से संयम आदि गुणों को एकत्रित कर मोक्ष स्थान पहुंचना है। ___गर्तपूर्ण :- पांचवीं (विशेषता) गर्तपूर्ण कही जाती हैं। जैसे किसी पुरुष के खाई-खाद आदि गड्डा खाली हो गया हो तो वह पुरुष उसे पत्थर, मिट्टी, ईंट आदि डाल कर भरना चाहता है, उसीप्रकार मुनिराज के निहार आदि के कारण उदर रूपी गड्डा खाली हो जाने पर जिस तिस (परन्तु उनके भक्ष्ण योग्य) आहार द्वारा उसे भरते हैं / इसप्रकार पांच प्रकार अभिप्राय जानकर वीतरागी मुनिराज शरीर की स्थिरता के लिये आहार लेते हैं / शरीर की स्थिरता से परिणामों की स्थिरता होती है / मुनिराजों को तो परिणाम बिगडने सुधरने का ही निरन्तर उपाय रहता है। जिसप्रकार राग-द्वेष उत्पन्न न हों, उसी क्रिया रूप प्रवर्तते हैं, अन्य प्रयोजन नहीं है। नवधा भक्ति ऐसे शुद्धोपयोगी मुनिराजों को गृहस्थ दातार. सात गुणों से संयुक्त होकर नवधा (नव प्रकार की) भक्ति करके आहार देते हैं, वह कहते हैं - __(1) प्रतिग्रहण :- पहले तो मुनिराज को पडगाहना (का आवाहन करना)। (2) उच्च आसन :- फिर उच्च स्थान पर मुनिराज को स्थापित करना (बैठाना) / (3) पादोदक :- फिर पादोदक अर्थात मुनिराज के चरण कमलों का प्रक्षालन करना, वही (प्रक्षालन का जल) हुआ गंदोदक, उसे अपने मस्तक आदि उत्तम अंगों पर कर्मो के नाश के लिये लगाना तथा अपने का धन्य मानना अथवा कृतकृत्य मानना / (4) अर्चना :फिर अर्चना अर्थात मुनिराज की पूजा करना / (5) प्रणमन :- फिर प्रणमन अर्थात मुनिराज के चरणों को नमस्कार करना / (6) मनशुद्धि :