Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ समाधिमरण का स्वरूप 239 ऐसा विचार कर पुन: स्वरूप में उपयोग को लगाता है तथा फिर भी वहाँ से उपयोग चलायमान हो अथवा हटे तो अरिहन्त, सिद्ध के आत्मिक स्वरूप का अवलोकन करता है एवं उनके द्रव्य-गुण-पर्याय का विचार करता है / उनके द्रव्य-गुण-पर्याय का विचार करते-करते जब उपयोग निर्मल हो जाता है तब फिर अपने स्वरूप में लगता है कि मेरा स्वरूप अरिहन्त, सिद्ध के स्वरूप जैसा ही है तथा अरिहन्त, सिद्ध का स्वरूप भी मेरे स्वरूप जैसा ही है। ___वह कैसे ? द्रव्यत्व स्वभाव में तो अन्तर है ही नहीं, पर्याय स्वभाव में ही अन्तर है, पर मैं तो द्रव्यत्व स्वभाव का ग्राहक हूं, अतः अरिहन्त का ध्यान करते आत्मा का ध्यान भली प्रकार सधता है, क्योंकि अरिहन्त के स्वरूप में तथा आत्मा के स्वरूप में अन्तर नहीं है / चाहे तो अरिहन्त का ध्यान करो, चाहे आत्मा का ध्यान करो / ऐसा विचार करते हुये सम्यग्दृष्टि पुरुष सावधान हुआ स्वभाव में स्थित रहता है। ___ ममत्व छुड़ाने की प्रक्रिया :- इससे आगे अब क्या विचार करता है तथा कैसे कुटुम्ब-परिवार आदि से ममत्व छुडाता है वह कहते हैं - अहो ! इस शरीर के माता-पिता आप भली प्रकार जानते हैं कि यह शरीर इतने दिन आपका था, अब आपका नहीं है। अब आयुबल पूर्ण हो रहा है वह किसी के रखने से रहेगा नहीं। इसकी इतनी ही स्थिति थी, अत: अब इससे ममत्व छोडें / इससे ममत्व करने से क्या होने वाला है, अब इससे प्रीति करना दु:ख का ही कारण है। यह शरीर पर्याय तो इन्द्र आदि देवों का भी विनाशशील है, इसका मरण (अन्त) आता है तब इन्द्र आदि देव भी बार-बार मुंह देखते रह जाते हैं / सब देव-समूह को देखते-देखते ही काल-किंकर इसे उठा ले जाता है / यह किसी की भी शक्ति नहीं की काल की ढाढ में से छुडाकर क्षणमात्र भी इसे रखले / यह काल-किंकर एक-एक को ले जाकर सब का