Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ समाधिमरण का स्वरूप 241 भोगे कोई दूसरा / अतः मुझे तो आप पर उल्टी दया आती है, आप मेरा उपदेश ग्रहण करें, मेरा उपदेश आपको महा सुखदायी है / कैसे सुखदायी है ? वह बताते हैं - मैने तो यथार्थ जिनधर्म का स्वरूप जाना है तथा आपने जाना नहीं है, अत: आपको यह मोह दुःख दे रहा है / मैने जिनधर्म के प्रताप से भली प्रकार मोह को जाना है, जिसे एक जिनधर्म का ही अतिशय जानें / अतः आपको भी जिनधर्म का स्वरूप विचारना ही कार्यकारी है / देखो! आप प्रत्यक्ष ज्ञाता-दृष्टा आत्मा हैं तथा शरीर आदि पर (अन्यभिन्न) वस्तुयें है / सब अपने स्वभाव रूप स्वयं परिणमन करती हैं, किसी के रखे रहती नहीं / भोले जीवों की बुद्धि भ्रमित है, अतः आप भ्रम बुद्धि छोडें, एक स्व-पर का सही-सही विचार करें तथा जिससे अपना हित सधे वही करें / विचक्षण पुरुषों की यही रीति है कि एक अपने हित को ही चाहते हैं, बिना प्रयोजन (निज हित) के एक कदम भी रखते नहीं हैं / ____ आप मुझसे जितना अधिक ममत्व करेंगे, उतना ही वह आपको अधिक दुःख का कारण होगा / उससे कुछ भी कार्य सधना नहीं। इस जीव ने अनन्त बार अनन्त माता-पिताओं को पाया, वे सब अब कहां गये? तथा अनन्त बार ही इस जीव को स्त्री-पुत्र-पुत्री के संयोग मिले, वे सब अब कहां गये? पर्याय-पर्याय में भाई-कुटुम्ब-परिवार आदि बहुत पाये, वे सब भी अब कहां गये? संसारी जीव हैं वे तो पर्याय-मूढ हैं, जैसी पर्याय धारण करते हैं वैसे ही स्वयं को मानते हैं तथा पर्याय में तन्मय होकर परिणमन करते हैं / यह नहीं जानते कि पर्याय-स्वभाव तो विनाशशील है। हमारा निज-स्वरूप है वह शाश्वत अविनाशी है, ऐसा विचार उन्हें उत्पन्न ही नहीं होता है / अत: आपको क्या दूषण है ? यह तो मोह का महात्म्य है कि प्रत्यक्ष झूठी बात को भी सत्य दिखाता है तथा जिनका मोह नाश को प्राप्त हुआ है वे भेद-विज्ञानी पुरुष हैं, वे इस पर्याय में कैसे अपनत्व करें ? कैसे इसे सत्य मानें ? ये पर्यायें किस की