Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 240 ज्ञानानन्द श्रावकाचार भक्षण करेगा / जो अज्ञान के कारण काल के वश रहेंगे उनकी यही गति होगी / आप सब मोह के वश होकर पराये (यहां मेरे) शरीर में ममत्व कर रहे हैं तथा इसे रखना चाहते हैं, आपको मोह के वश संसार का झूठा चरित्र (नाशशील परिणमन)दिख नहीं रहा है। अन्य के शरीर को रखना तो दूर रहा, आप पहले अपने शरीर को तो रखें, फिर अन्य के शरीर को रखने का उपाय करना। आपकी यह भ्रम बुद्धि है वह व्यर्थ ही दु:ख देने के लिये ही है। आपको यह प्रत्यक्ष दिख नहीं रहा है कि आज से पहले इस संसार में काल ने किसको छोडा है जो अब किसी को छोडेगा / इसलिये हाय ! देखो यह कैसे आश्चर्य की बात है कि आप लोग काल से निर्भय हुये हैं / यह आप लोगों का क्या अज्ञानपना है, आप लोगों का क्या होनहार है, वह मैं नहीं जानता / अत: आप से ही पूछता हूँ। आप को आपा-पर (स्व-पर) का कुछ विवेक है या नहीं ? ___ मैं कौन हूँ, कहां से आया हूँ, मैं यह पर्याय पूर्ण कर कहां जाऊंगा? तथा जिन पुत्र आदि से (आपको) प्रीति है वे कौन हैं ? इतने दिनों हमारा (आपका) पुत्र कहां था, अब हमें (आपको) ममता बुद्धि हुई है, उसके वियोग का हमें (आपको) शोक उत्पन्न हुआ है ? अत: आप सब सावधान होकर विचार करें तथा भ्रम रूप न रहें। आप तो अपना स्वयं का कार्य विचारेंगे तब सुख पावेंगे / पर (दूसरे) का कार्य-अकार्य तो दूसरे के हाथ में है, उसमें आपका कुछ भी कर्तव्य नहीं है / आप व्यर्थ ही क्यों खेद खिन्न होते हैं ? मोह के वश होकर अपने-आप (स्वयं) को संसार में क्यों डुबाते हैं ? ___ संसार में नरक आदि के दु:ख आपको स्वयं को ही सहने होंगे / आपके किये (कर्मों अथवा मोह का फल) अन्य तो कोई सहेगा नहीं / जिनधर्म का ऐसा तो कोई उपदेश (सिद्धान्त-मान्यता) है नहीं कि करे कोई तथा