Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ एकादशम अधिकार : अरिहन्तादि के स्वरूप का वर्णन आगे अरिहन्त आदि के स्वरूप का वर्णन करते हैं। अरिहन्त कैसे हैं ? प्रथम तो सर्वज्ञ हैं, उनके ज्ञान में समस्त लोकालोक के तीन काल सम्बन्धी चराचर पदार्थ एक समय में झलकते हैं, ऐसी ज्ञान की प्रभुत्व शक्ति है / वीतराग हैं / यदि सर्वज्ञ हों पर वीतराग न हों तो उसको परमेश्वरपना संभव नहीं होता है / वीतराग तो हों पर सर्वज्ञ न हों तो भी अज्ञानता के कारण पदार्थों का स्वरूप सम्पूर्ण रूप से कैसे जान पावेगा ? समर्थ हों पर दोषों से संयुक्त हों तो उसको परमेश्वर कौन माने ? अत: जिसमें ये दो दोष अर्थात राग-द्वेष तथा अज्ञानपना नहीं है वह ही परमेश्वर है, तथा वह ही सर्वोत्कष्ट है। ऐसे दोनों दोषों से रहित एक अरिहन्त देव ही हैं, वे ही सर्व प्रकार पूज्य हैं / यदि सर्वज्ञ वीतराग भी हों पर तारने में समर्थ न हों तो भी प्रभुत्वपने में कमी रह जाती है, अतः उनमें तारण शक्ति भी होती है / कोई जीव तो भगवान का स्मरण करके ही भव-संसार-समुद्र से तिरते हैं, कोई भक्ति कर तिरते हैं, कोई स्तुति करके तिरते हैं, कोई ध्यान करके तिरते हैं इत्यादि एक-एक गुण का आराधन कर मुक्ति को पहुंचते हैं। परन्तु भगवान को वीतरागी होने के कारण खेद नहीं होता। ___ महन्त पुरुषों में अत्यन्त शक्ति हैं, उन्हें स्वयं को तो कुछ उपाय करना पडता नहीं, उनके अतिशय से सेवकों का स्वयमेव भला हो जाता है तथा प्रतिकूल पुरुषों का स्वयमेव बुरा हो जाता है / शक्तिहीन पुरुष हैं वे तो हार जाते हैं तथा दूसरों का बुरा-भला करें तो उनके किये वैसा ही हो जावे ऐसा नियम नही हैं, होना हो तो हो / इत्यादि अनन्त गुणों से अरिहन्त देव शोभित हैं / आगे जिनवाणी के अनुसार तथा सर्व दोषों से रहित जो जैन सिद्धान्त है उसमें सर्व तत्वों का निरूपण है तथा उसी में मोक्ष का तथा मोक्ष के स्वरूप का वर्णन है एवं वह पूर्वापर दोष से रहित है / इत्यादि अनेक महिमाओं को धारण किये हुये ऐसा जिनशासन है /