Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 286 ज्ञानानन्द श्रावकाचार इसका क्या फल होगा ? यह मिथ्यात्व की प्रवृत्ति बिना चलाये स्वयंमेव ही चली आ रही है, धर्म की प्रवृत्ति चलाने पर भी चलती नहीं। यह बात न्याय संगत ही है, क्योंकि बहुत जीवों को संसार में ही भ्रमण करते रहना है तथा बहुत कम जीवों को संसार रहित (मुक्त ) होना है। देखो ! स्त्री का दगाबाज स्वभाव, कि जगत को दिखाने के लिये तो ऐसी लज्जा करती है, शरीर के अंगोपांग अंश मात्र भी दिखाती नहीं तथा माता-पिता भाई इत्यादि के देखते होने पर भी महादेव के लिंग तथा पार्वती के भग की चौराहे पर निःशंक होकर पूजा करती है / किसी के मना करने पर भी मानती नहीं है / यह न्याय ही है कि मोह कर्म के उदय के कारण सारे जीवों में विषय-कषायों की आसक्ती स्वयमेव ही बिना चाहे ही बनी रहती है / फिर विषयों का और भी पोषण किया जावे तो क्या कभी धर्म हुआ है ? यदि विषयों के पोषण से ही धर्म होता हो तो पाप किस कार्य से होगा ? अत: यह श्रद्धान अयुक्त है। कृष्णजी के सबक कर्त्तापने की मान्यता :- आगे और भी कहते हैं - कोई ऐसा कहते हैं कि कृष्णजी सब के कर्ता हैं तथा यह भी कहते हैं कि उनने पशुओं को चराया, मक्खन चुरा-चुरा कर खाया, पर-स्त्रियों से रमण किया तथा क्रीडा की / उनसे कहते हैं - हे भाई ! कोई भी ऐसा महन्त पुरुष होकर नीच कार्य कभी नहीं करेगा, यह नियम है / नीच कार्य करे तो बडा पुरुष नहीं कहलाता। कार्य के अनुसार ही पुरुषों में ऊंचनीचपन होता है, ऐसा नहीं है कि नीच कार्य करते-करते प्रभुत्व प्राप्त करले तथा उच्च कार्य करते नीचता को प्राप्त हो / ऐसा जगत में प्रत्यक्ष देखा जाता है। ___एक दो गांव का ठाकुर हो वह भी ऐसे निंद्य कार्य करता नहीं, तो बडा पृथ्वीपति राजा अथवा देव अथवा परमेश्वर होकर ऐसा निंद्य कार्य कैसे करे ? यह प्रकृति का स्वभाव ही है / बालक हो वह तरुण अवस्था के अथवा वृद्ध अवस्था में करने के कार्य नहीं करता तथा वृद्ध हो जाने पर