Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 312 ज्ञानानन्द श्रावकाचार आठ-दस हजार घर हैं / ऐसा जैन लोगों का समूह अन्य नगरों में नहीं है / यहां के देश में सर्वत्र मुख्यपने श्रावक लोग बसे हैं, अत: यह नगर अन्य देशों से बहुत निर्मल तथा पवित्र है / इस कारण धर्मात्मा पुरुषों के बसने का स्थान है / अभी (वर्तमान में ) तो यह साक्षात धर्मपुरी है। देखो ! यह प्राणी व्यापार आदि लौकिक कार्यों के लिये तो समुद्र पर्यन्त जाता है तथा विवाह आदि कार्यों के लिये भी सौ-पचास कोस जाता है तथा मनमाना द्रव्य (धन) खर्च करता है, जिसका फल तो नरक निगोद है / उन कार्यों में तो इस जीव को ऐसी आसक्ति पाई जाती है / यह वासना सर्व जीवों को बिना सिखाये ही स्वयमेव बनी है, परन्तु धर्म की लगन किसी सत्पुरुष के ही पाई जाती है। विषय कार्यों का पोषण करने वाले तो कदम-कदम पर मिलेंगे, परमार्थ कार्य के उपदेशक एवं उनमें रुचि लेने वाले बिरले स्थानों पर किसी काल में पाये जाते हैं / अत: इनकी प्राप्ति महा भाग्य के उदय से काललब्धि के अनुसार होती है / जीव की यह मनुष्य पर्याय क्षणभंगुर है, उसमें भी इस काल में (वर्तमान में) तो जीव की स्थिति बिजली की चमक के समान अल्प है, उसमें भी लाभ-हानि बहुत हैं / एक ओर तो विषय-कषाय का फल नरक आदि के अनन्त संसार का दुःख है, दूसरी ओर शुभ तथा शुद्धधर्म का फल स्वर्ग मोक्ष है / अल्प से परिणामों के विशेष से कार्य में इतनी विपरीतता (अन्तर) पडता है / सर्व बातों में यही एक न्याय है कि बीज तो सब का तुच्छ ही होता है तथा फल उसके अपार लगते हैं / अत: ज्ञानी विचक्षण पुरुषों को एक धर्म ही उपादेय है / अनन्तानन्त सागर पर्यन्त काल एकेन्द्रिय में व्यतीत करे तब एक त्रस की पर्याय प्राप्त करता है / ऐसे त्रस पर्याय का पाना ही दुर्लभ है, तब मनुष्य पर्याय पाने की बात ही क्या है ? उसमें भी उच्च कुल, पूरी आयु, इन्द्रियों की प्रबलता, निरोग शरीर, आजीविका की स्थिरता, शुभक्षेत्र,