Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 328
________________ परिशिष्ठ -2 313 शुभ काल, जिनधर्म का अनुराग, ज्ञान का विशेष क्षयोपशम, परिणामों की विशुद्धता - जीव इन्हें अनुक्रम से दुर्लभता से पाता है। कैसी दुर्लभता से पाता है ? अभी ऐसा संयोग मिला है, पूर्व में अनादि (बहुत-बहुत) काल से नहीं मिला होगा / यदि ऐसा संयोग मिला होता तो फिर संसार में क्यों रहता ? जिनधर्म का ऐसा (हीन) प्रताप नहीं है कि सच्ची प्रतीति आने के बाद भी संसार के दु:ख पावे / अतः आप तो बुद्धिमान हैं, जिसमें अपना हित हो वह करना / धर्म के अर्थी पुरुष को तो थोडा सा ही उपदेश बहुत होकर परिणमता है / बहुत कहने से क्या ? __इस चिट्ठी की दस-बीस नकल और कराकर वहां के आसपास जहां जैन लोग बसते हों वहां भेजना / यह चिट्ठी सर्व जैन बंधुओं को एकत्रित करके उनके सम्मुख पढना तथा इसका रहस्य सब को समझा देना / चिट्ठी पहुंची अथवा नहीं पहुंची का पता लगता नहीं है, आने न आने की सूचना मिलती नहीं। मिति माघ वदि नवमी संवत अठारह सौ इक्कीस /

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