Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 294 ज्ञानानन्द श्रावकाचार ____ यदि छापे तिलक से ही कल्याण होता हो तो खैखरा के दिन बैल आदि का सर्व शरीर छपा दिया जाता है उनका भी कल्याण हो जावे ? तथा यदि ध्यान धरने पर ही कल्याण होता हो तो बगुला ध्यान धरता है उसका भी कल्याण हो जाना चाहिये। राम-राम कहने मात्र से कल्याण होता हो तो पिंजरे में बंद तोता सदा राम-राम कहता रहता है, उसका भी . कल्याण हो जाना चाहिये / घर बार छोडकर बन में बसने मात्र से कल्याण हो तो बंदर तथा बहुत से पशु सदैव वन में नग्न रहते हैं, उनका कल्याण क्यों न हो / इन सब का कदाचित भी कल्याण नहीं होता क्योंकि कल्याण होने का कारण कुछ और ही है / कुगुरु का स्वरूप ऐसा जानना / अतः हे भव्य ! ऐसे कुगुरु आदि का सेवन दूर से ही तजो / बहुत कहने से क्या ? विचक्षण पुरुष हैं वे तो थोडे में ही. समझ लेते हैं तथा अज्ञानी बहुत कहने पर भी नहीं समझते / देव-गुरु-धर्म का स्वरूप एक-एक ही प्रकार का है, अन्य-अन्य प्रकार के नहीं हैं / उनका स्वरूप. पहले वर्णन कर ही चुके हैं, वैसा-वैसा जानना / उनसे ही मोक्षमार्ग है, अन्य का सेवन संसार में भ्रमण का मार्ग है। __श्री गुरु कहते हैं - हे वत्स ! हे पुत्र ! जो तुझे अच्छे लगें उनका सेवन कर, मेरे कहने पर मत रह। परीक्षा करके देव, गुरु, धर्म की प्रतीति कर। यथार्थ देव, गुरु, धर्म की प्रतीति किये बिना जितना (तथाकथित - जो धर्म तो है नहीं पर धर्म कहा जाता है) धर्म किया जाता है, वह सब निष्फल होता है / जैसे एक के अंक के बिना कितने ही शून्य हो सब निरर्थक हैं। कई सिंह की खाल पहने हैं, कई नग्न होकर नाना प्रकार के शस्त्र धारण करते हैं, कई वन-फल ही खाते हैं, कई कुत्ते आदि तिर्यन्चों को रखते हैं, कई मौन धारण किये रहते हैं, कई पवनाभ्यास करते हैं, कई ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र, तंत्र, यंत्र करते हैं, कई लोगों को दिखाने हेतु ध्यान धरते हैं, कई स्वयं को महंत मानते हैं,कई स्वयं को सिद्ध मानते हैं, कई