Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 274 ज्ञानानन्द श्रावकाचार फिर भी यदि कोई कहे कि परमेश्वर को ऐसा ही होना चाहिये, सभी का भला करे, पर ऐसा हैं कहां - कभी तो उनको उत्पन्न करता है फिर उन्हीं का नाश करता है, ऐसा परमेश्वरपना कैसा (कैसे बने)। सामान्य पुरुष भी ऐसे कार्य का विचार नहीं करता।। कुछ लोग सर्व जगत को अथवा सर्व पदार्थों को शून्य कहते हैं, नास्ति मानते हैं / उनको कहते हैं - हे भाई ! तू सर्व नास्ति मानता है, तो तू सर्व नास्ति कहने वाला तो वस्तु (मौजूद अस्ति रूप) ठहरा / इसीप्रकार अनन्त जीव, अनन्त पुदगल आंखों से प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं उन्हें नास्ति कैसे कहता है ? कोई ऐसा कहते हैं - जीव तो क्षण-क्षण में उत्पन्न होता हैं क्षणक्षण में विनशता है / उससे कहते हैं - हे भाई ! यदि जीव क्षण-क्षण में उत्पन्न होता है तो कल की बात आज किसने कैसे जानी तथा मैं अमुक था, जो मरकर देव हुआ हूं, ऐसा कौन कहता है ? ___ कोई ऐसा कहता है - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पांच तत्व मिलकर चैतन्य शक्ति उत्पन्न करते हैं / उससे कहते हैं - हे भाई ! पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पांचों तत्व तूने कहे वे तो जड अचेतन द्रव्य हैं। अचेतन द्रव्य से चेतन द्रव्य उत्पन्न नहीं होता, ऐसा नियम है, जो प्रत्यक्ष आंखों से देखा जाता है / __ऐसा आज तक पहले नहीं सुना, नहीं देखा कि नानाप्रकार के मंत्र, जंत्र आदि का धारक कोई भी पुरुष जो किसी भी पुरुष अथवा पुद्गल द्रव्य को नानाप्रकार के परिणमन कराता है (कराता दिखाई देता है)। अमुक देव, विद्याधर अथवा अमुक मंत्र का आराधन करके पंच पुद्गलों (अथवा उनमें से किन्हीं) को चैतन्य रूप परिणमन कराया हो। अमूर्तिक आकाश तथा पृथ्वी आदि चारों मूर्तिक द्रव्य मिलकर जीव नामक अमूर्तिक पदार्थ को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ?