Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 275 कुदेवादि का स्वरूप यदि ऐसा हो सकता हो तो आकाश तथा पुद्गल का तो नाश ही हो जावेगा तथा आकाश तथा पुद्गल के स्थान पर चैतन्य ही चैतन्य द्रव्य हो जावेंगे, पर ऐसा तो दिखता नहीं / चैतन्य एवं पुद्गल आदि सारे पदार्थ भिन्न-भिन्न आंखों से देखे जाते हैं, उन्हें झूठ कैसे मानें ? हे भाई ! यदि ऐसा हो तो बडा दोष उत्पन्न होगा। ___नानाप्रकार के कई पदार्थ देखे जाते हैं तथा चैतन्य पदार्थ भी बहुत देखे जाते हैं, उन्हें एक कैसे माना जावे ? यदि सब एक ही पदार्थ हों तो ऐसा कैसे कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति नरक गया या अमुक स्वर्ग गया, अमुक मनुष्य हुआ। अमुक तिर्यंच हुआ, अमुक व्यक्ति मुक्ति गया, अमुक व्यक्ति सुखी है, अमुक चेतन, अमुक अचेतन इत्यादि नानाप्रकार के भिन्नभिन्न पदार्थ जगत में माने जाते हैं, उन्हें झूठ कैसे कहा जा सकता है। ___यदि सर्व जीवों तथा पुद्गलों की एक ही सत्ता है तो एक के दुःखी होने पर सभी को दु:ख होना चाहिये, एक के सुखी होने पर सब को सुख होना चाहिये / चेतन पदार्थ की ही भांति अचेतन पदार्थ भी दु;खी, सुखी होंगे, वह तो देखा नहीं जाता / यदि सारे ही पदार्थो की सत्ता एक हो तो अनेक पदार्थ क्यों कहने पडें ? तथा अमुक व्यक्ति ने खोटे कर्म किये, अमुक ने अच्छे कर्म किये, ऐसा कहना कैसे बनेगा ? सर्व ही में व्यापक एक ही पदार्थ हुआ तो स्वयं को स्वयं ने कैसे (क्यों ) दु:खी किया ? ऐसा तो तीन लोक में होता नहीं कि कोई स्वयं को दु:खी करना चाहे / अतः सिद्ध है कि नानाप्रकार के भिन्न-भिन्न पदार्थ स्वयमेव अनादि-निधन बने हैं, कोई किसी का कर्ता नहीं है (किसी ने किसी को बनाया नहीं है ) / सर्व व्यापि एक ब्रह्म कहने में नानाप्रकार की विपरीततायें भासित होती हैं। अत: हे स्थूल बुद्धि ! ये तेरा श्रद्धान मिथ्या है, प्रत्यक्ष में आंखों से दिखने वाली वस्तुओं में क्या संदेह तथा क्या प्रश्न ? आंखों देखी वस्तु को भूलता है तथा कुछ की कुछ कहता है, अथवा कुछ की कुछ मानता है, उसके अज्ञानपने का क्या कहना ? जैसे कोई पुरुष किसी अन्य पुरुष