Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 270 ज्ञानानन्द श्रावकाचार पर उस कांच के टुकडे की आराधना करे अथवा बाजार में जाकर बेचने का प्रयास करे तो उसे दो कौडी (एक पैसा) भी प्राप्त नहीं होगी। इस ही प्रकार कुदेव आदि को अच्छा भला जानकर बहुत से जीव उनका सेवन करते हैं, पर उनसे कुछ गरज तो सधती नहीं (मोक्ष की प्राप्ति तो होती नहीं ), उल्टा परलोक में नाना प्रकार के नरक आदि के दु:ख सहने पडते हैं / अत: कुदेव आदि के सेवन से दूर ही रहो, उनके साथ एक स्थान पर रहना भी उचित नहीं है / जैसे सर्प आदि क्रूर जीवों का संसर्ग उचित नहीं है, उसीप्रकार कुदेव आदि का संसर्ग उचित नहीं है / सर्प आदि से कुदेव आदि में इतना विशेष है और सर्प आदि के सेवन से तो एक बार ही प्राणों का नाश होता है, पर कुदेव आदि का सेवन करने से पर्याय-पर्याय में अनन्त बार प्राणों का नाश होता है तथा नानाप्रकार के नरक निगोद के दुःखों को सहना पडता है / अतः सर्प आदि का सेवन श्रेष्ठ है तथा कुदेव आदि का सेवन उचित नहीं है / इसकारण कुदेव आदि के सेवन को अनिष्ट जानना / जो विचक्षण पुरुष अपने हित के वांछक हैं वे शीघ्र ही कुदेव आदि के सेवन का त्याग करें। देखो संसार में तो यह जीव इतना सयाना है ऐसी बुद्धि रखता है कि दो पैसे कि हंडिया खरीदता है तो उसको बार-बार बजाकर उसका फूटी अथवा सही होना देखकर खरीदता है / पर धर्म जैसी उत्कृष्ट वस्तु जिसका सेवन करने से अनन्त संसार के दु:खों से छुटकारा मिल जाता है उसे अंगीकार करने में अंश मात्र भी परीक्षा नहीं करता / लोक में (अपनीअपनी पारिवारिक मान्यता का) भेड चाल जैसा प्रवाह है अर्थात लोक जिसे पूजता है अथवा सेवन करता है उसे ही पूजने सेवन करने लगता है / भेड चाल का प्रवाह कैसा है ? भेड को ऐसा विचार नहीं है कि आगे खाई है अथवा कुआ है, सिंह है कि व्याघ्र है / ऐसे विचार बिना एक भेड के