Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 253 मोक्ष सुख का वर्णन दसों दिशाओं में अलोकाकाश सर्वव्यापी दिखाई देता है / तीन काल के समयों का प्रमाण दिखता है / सर्व पदार्थो की तीन काल सम्बन्धी पर्यायों का पलटना दिखता है / केवलज्ञान का जानपना मुझे प्रत्यक्ष दिखता है, ऐसे इस ज्ञान का स्वामी कौन है ? ऐसा ज्ञान किसे हुआ है ? ऐसा ज्ञायक पुरुष तो प्रत्यक्ष साक्षात विद्यमान दिखाई देता है / जहां-तहां ज्ञान का प्रकाश मुझे ही दिखाई देता है, शरीर को तो दिखता नहीं (दिखाई दे सकता नहीं), इसप्रकार के इस जानपने का स्वामी कोई अन्य है या मैं ही हूं ? यदि कोई अन्य दूसरा हो तो मुझे यह सब जानकारी क्यों कैसे हुई ? किसी अन्य का देखा कोई अन्य कैसे जान सकता है ? अत: यह जानपना मुझ में ही है अथवा मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। जो जानपना है वह मैं ही हं तथा मैं ही हँसो वह जानपना है। इसकारण जानपने में तथा मुझ में द्वैत नहीं है। मैं एक ज्ञान का ही स्वच्छ निर्मल पिंड हं। जिसप्रकार नमक की डली खारेपन की पिंड है अथवा जिसप्रकार शक्कर की डली मीठी अमृत की अखण्ड पिंड है, उसीप्रकार मैं भी साक्षात प्रकट शरीर से भिन्न ऐसा बना हूं जिसका स्वभाव लोकालोक का प्रकाशक, चैतन्य धातु, सुखपिंड, अखण्ड, अमूर्तिक, अनन्त गुणों से पूर्ण है, इसमें संदेह नहीं है। देखो ! मेरे ज्ञान की महिमा, अभी मुझे कोई केवलज्ञान नहीं है, कोई मन:पर्याय ज्ञान भी नहीं है, मात्र मति तथा श्रुत ज्ञान ही है जो भी पूरा नहीं है। उनका केवल अनन्तवें भाग क्षयोपशम हआ है उसके होने मात्र से ऐसा (ऊपर कहा जैसा) ज्ञान का प्रकाश हुआ है तथा उसी अनुसार आनन्द हुआ है / ऐसे ज्ञान की महिमा किसे कहूं ? ऐसा आश्चर्यकारी स्वरूप मेरा ही है किसी अन्य का तो हैं नहीं ? अतः ऐसे विचक्षण पुरुष (निज स्वरूप) का अवलोकन करके मैं किस अन्य से प्रीति करूं ? मैं किस की आराधना करूं, मैं किस का सेवन करूं, किस के पास जाकर याचना करूं ? इस स्वरूप को जाने बिना मैने