Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 260 ज्ञानानन्द श्रावकाचार बिना चैतन्य गुण किसके सहारे रहेगा। प्रदेशों के बिना गुण कदाचित भी नहीं होता नहीं, यह नियम है / जैसे भूमि के बिना वृक्ष आदि किस के सहारे हों, उसी प्रकार प्रदेशों के बिना गुण किसके आश्रय हों ? ऐसा विचार करने पर अनुभव में भी आता है तथा आज्ञा से तो प्रमाण है ही। कोई आकर मुझे झूठ ही यह कहे कि अमुक ग्रन्थ में ऐसा कहा है / तुमने पहले तीन लोक प्रमाण प्रदेशों का श्रद्धान किया था (आत्मा तीन लोक के प्रदेशों प्रमाण है), अब बडे ग्रन्थ में इस भांति लिखा प्राप्त हुआ है कि आत्मा के प्रदेश धर्म द्रव्य के प्रदेशों से कम हैं / तब मैं ऐसा विचारता हूं कि सामान्य शास्त्र से विशेष बलवान है, अत: ऐसा ही होगा। मेरे अनुभव में तो कुछ विशेष निर्णय होता नहीं, अत: में सर्वज्ञ का वचन मान कर प्रमाण करता हूँ। पर कोई मुझे यह कहे कि तू जड है, अचेतन, मूर्तिक है तथा परिणति से रहित है, तो यह मैं मान नहीं सकता, इसके झूठ होने में मुझे कोई संदेह नहीं है, ऐसा मुझे करोडों ब्रह्मा, करोडों विष्णु, करोडों नारायण, करोडों रुद्र आकर भी कहें तो मैं यह ही मानूंगा कि ये सब पागल हो गये हैं। वे मुझे ठगने आये हैं अथवा मेरी परीक्षा करने आये हैं / मैं ऐसा मानता हूँ। ____ भावार्थ :- यह ज्ञान परिणति है वह मैं ही हूँ, मुझमें ही होती है, ऐसा जानने वाला सम्यग्दृष्टि होता है तथा इसे जाने बिना मिथ्यादृष्टि होता है / अन्य अनेक प्रकार के गुणों के स्वरूप का तथा पर्यायों के स्वरूप का जैसे-जैसे ज्ञान हो वैसे-वैसे जानपना कार्यकारी हो तो हो, पर मनुष्यपने में उपरोक्त कहे दो गुणों का जानपना अवश्य होना ही चाहिये। ऐसा लक्षण जानना। विशेष गुण इसप्रकार जानना कि एक गुण में अनन्त गुण हैं तथा अनन्त गुणों में एक गुण है। गुण से गुण मिलकर एक होते नहीं तथा सब गुण मिले भी हैं / जैसे स्वर्ण में भारीपन, पीलापन, चिकनापन, आदि अनेक गुण हैं, सो क्षेत्र की अपेक्षा तो सभी गुणों में पीलापन पाया जाता