Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 238 ज्ञानानन्द श्रावकाचार भी प्रकार का विघ्न दिखता नहीं है, तब मेरे परिणामों में क्यों क्लेश उत्पन्न हो ? मेरे परिणाम शुद्ध स्वरूप में अत्यन्त आसक्त हैं, उन्हें चलायमान करने में, छुडाने में कोई ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, धरणेन्द्र आदि भी समर्थ नहीं हैं / केवल एक मोह कर्म समर्थ था उसे मैंने पहले ही जीत लिया है इसलिये अब तीन काल में भी मेरा कोई शत्रु नहीं रहा तथा न ही मुझे किसी से बैर है / अतः त्रिकाल, त्रिलोक में मुझे दुःख है नहीं। फिर हे सभा के लोगो ! मुझे इस मरण का भय कैसे कहते हो ? मैं अब सर्व प्रकार से निर्भय हुआ हूँ, आप सभी यह बात भली प्रकार जान लें, इसमें संदेह न करें। ___शुद्धोपयोगी पुरुष इसप्रकार शरीर की स्थिति पूर्ण रूप से जानता है तथा ऐसे विचार कर आनन्द से रहता है, उसे किसी प्रकार की आकुलता उत्पन्न नहीं होती / आकुलता ही संसार का बीज है, इस बीज के कारण ही संसार की स्थिति है / आकुलता से बहुत काल के संचित हुये संयम आदि गुण, जैसे अग्नि में रुई भस्म हो जाती है, उस ही प्रकार भस्म हो जाते हैं / अत: जो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं उन्हें तो किसी भी प्रकार की आकुलता करना योग्य नहीं है / निश्चय रूप से एक स्वरूप का ही बारबार विचार करना, उसी के गुणों का चिन्तन करना, उसी की पर्याय की अवस्था का विचार करना, उसी का स्मरण करना, उसी में स्थित रहना योग्य है। यदि कदाचित शुद्ध स्वरूप से उपयोग चलायमान हो तो ऐसा विचार करना कि यह संसार अनित्य है, इस संसार में कुछ भी सार नहीं है, यदि कुछ सार होता तो तीर्थंकर ही इसे क्यों छोडते ? अतः अब निश्चय से तो मुझे मेरा स्वरूप ही शरण है, बाह्य में पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी अथवा रत्नत्रय धर्म शरण हैं / अन्य कुछ स्वप्न मात्र भूले बिसरे भी मेरे अभिप्राय में मुझे शरण नहीं है, मेरे यह नियम है /