Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 245 समाधिमरण का स्वरूप होनी है / ससार का ऐसा चरित्र जानकर कौन ऐसा बुद्धिमान होगा जो इससे प्रीति करेगा ? इसप्रकार कुटुम्ब-परिवार को भी समझाकर बिदा करता है। पुत्र को सम्बोधन :- अब पुत्र को बुलाकर समझाता है - अहो पुत्र ! तुम सयाने हुये हो, मुझसे किसी भी प्रकार का मोह मत करना / जिनेश्वर देव द्वारा कथित जो धर्म है उसे भली प्रकार पालन करना / तुम्हें धर्म ही सुखकारी होगा, माता-पिता सुखकारी नहीं हैं / कोई मातापिता को सुखदायी मानता है यह उसके मोह का महात्म्य है / कोई किसी का कर्ता नहीं है, कोई किसी का भोक्ता भी नहीं है, अत: अब हमसे तुम्हें क्या प्रयोजन? यदि तुम व्यवहार मात्र भी मेरी आज्ञा मानते हो तो मैं कहता हूँ, वह करो। प्रथम तो तुम देव-गुरु-धर्म में अवगाढ प्रतीति करो तथा साधर्मियों से मित्रता करो / दान, तप, शील, संयम से अनुराग करो तथा स्व-पर भेद-विज्ञान का उपाय करो। संसारी जीवों से ममता भाव अर्थात प्रीति को छोडो / संसार में सरागी पुरुषों की संगति से ही यह जीव इस लोक में तथा परलोक में महा दु:ख पाता है, अत: सरागी पुरुषों की संगति अवश्य छोडना तथा धर्मात्माओं की संगति करना चाहिये। धर्मात्मा पुरुषों की संगति इस लोक में तथा परलोक में महासुखदायी है। इस लोक में तो महा निराकुलता रूप सुख की प्राप्ति होती है एवं यश की प्राप्ति होती है तथा परलोक में स्वर्ग आदि के सुख पाकर मोक्ष में शिवरमणी की प्राप्ति होती है / धर्मात्मा पुरुषों की संगति करने वाला निराकुल, अतीन्द्रिय, अनुपम, बाधारहित, शाश्वत, अविनाशी सुख को भोगता है। इसलिये हे पुत्र ! यदि तुम्हें हमारे वचन सत्य प्रतीत होते हैं तथा इनमें तुम्हें अपना भला होना प्रतीत होता है तो हमारे वचन स्वीकार करो / यदि