Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ समाधिमरण का स्वरूप 243 ले गये / मैने बडा परिश्रम करके कमा कर एकत्रित किया था, वह आज जाता रहा, अब मैं कैसे काल पूरा करूंगा? कभी नगर से भागने लगे तथा उसके लिये वह पुरुष एक लडके को तो कंधे पर बैठाले, एक लडके की अंगुली पकडे, स्त्री तथा पुत्री को आगे करके तथा साथ में सूपा, चलनी तथा खाना पकाने की हंडिया, झाडू आदि सामग्री का टोकरा भरकर स्त्री के सर रख दे। एक दो बिस्तर आदि का गट्ठर बांधकर खुद के सर पर लेकर आधी रात को नगर से बाहर निकले / राह में राहगीर, ठग मिलें तथा पूछने लगें - हे भाई ! तुम कहां चले ? तब वह पुरुष कहे - इस नगर में शत्रुओं की फौज आई है, अत: हम अपना धन लेकर भाग रहे हैं, अन्य नगर में जाकर गुजारा करेंगे। इत्यादि नाना प्रकार की क्रियायें करता हुआ भी वह कल्पवासी देव अपने सोलहवें स्वर्ग के वैभव को क्षण मात्र भी नहीं भूलता है / उस वैभव का अवलोकन कर महासुखी हुआ विचरण करता है तथा रंक पुरुष की पर्याय में हई नाना प्रकार की अवस्थाओं का रंच मात्र भी अंहकार-ममकार नहीं करता है, केवल एक सोलहवें स्वर्ग की अपनी देवांगनाओं में, वहां के वैभव में एवं अपने देव पुनीत स्वरूप में ही उसे एकत्व रहता है, उसीप्रकार मैं सिद्ध स्वरूप आत्म द्रव्य की इस पर्याय में नाना प्रकार की चेष्ठा करता हुआ भी अपनी मोक्ष-लक्ष्मी को नहीं भूला हूं, तब इस लोक में काहे का भय करूं ? ___स्त्री से ममत्व त्याग :- इसके बाद वह स्त्री से ममत्व छुडाता है, वह कहता है - अहो ! इस शरीर की स्त्री, अब इस शरीर से ममत्व छोडो / तेरा तथा इस शरीर का इतना ही संयोग था, वह अब पूरा हुआ। रेर अप्रत्ययस्तारें अब इस शरीर से पूरी नहीं होनी इमलिये अब मोह छोड / बिना प्रयोजन खेद मत कर, तेरे रखे यह शरीर रहे तो रख ले, मैं तो तुझे रोकूगा नहीं / यदि तेरे रखे भी यह शरीर रहता नहीं है तो मैं क्या