Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
View full book text
________________ 112 ज्ञानानन्द श्रावकाचार होते रहते हैं / धर्मोपदेश का कार्य अंश मात्र भी नहीं होता। मुनिराज के गले में मरा सर्प डाला था जिसके डालते ही सातवें नरक का आयुबंध कर लिया था / मुनिराज के शान्त भावों के कारण परिणाम वर्द्धमान स्वामी अंतिम तीर्थंकर के निकट क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्तकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, सभा-नायक हुआ तो भी कर्मो से नहीं छूटा, नरक ही गया। ऐसे परम धर्मात्मा को भी कर्म नहीं छोडते तो फिर तीर्थंकर देव का अविनय करने वाले को कर्म कैसे छोडेंगे ? इसलिये धर्मात्मा पुरुष तो इसप्रकार के अविधि के कार्यों को शीघ्र ही त्यागें / कुछ विरले धर्मात्मा पुरुष पंचम काल में भी ऊपर अविधि कही, उसके बिना (अर्थात विधि पूर्वक) अपनी शक्ति के अनुसार विनय सहित धर्मार्थी होकर जिनमंदिर बनवाते हैं / नाना प्रकार के उपकरण चढाते हैं तो वे पुरुष स्वर्ग आदि के सुखों को प्राप्तकर मोक्ष सुख के भोक्ता होते हैं। कोई कोई पुरुष जिनधर्म के प्रतिपक्षी अन्यमति राजा के दरबार से अथवा किसी सायरा (कुदेव अथवा साहूकार) की पैडी से याचना कर अल्प सी राशि प्रतिमाह के रूप में पूजा आदि के अर्थ जिनमंदिर के लिये बंधवा देते हैं, वह महापाप है / अपने परम सेवकों के अतिरिक्त इन अन्यमति राजा, दानी का धन श्रीजी के मंदिर में लगाना उचित नहीं है / विराधी (अधर्मी) का पैसा मंदिरजी में कैसे, क्यों लगाया जावे ? अतः धर्म में विवेक पूर्वक ही कार्य करना चाहिये। छह काल का वर्णन आगे छह काल का वर्णन करते हैं / दस कौडाकोडी सागर प्रमाण अवसर्पिणी काल तथा इतना ही उत्सर्पिणी काल (कुल मिलाकर बीस कौडाकाडी सागर) का नाम कालचक्र है / एक-एक अवसर्पिणी तथा