Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ सम्यग्चारित्र 175 किया हो अथवा आज ही मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी हो / सम्यक् रत्नत्रय तो मेरे सहज ही उत्पन्न हुआ, इसलिये ऐसे सुख की महिमा मैं क्यों न कहूं ? हे भगवान ! आपके गुणों की महिमा करते जिह्वा तृप्त नहीं होती है, आपके रूप का अवलोकन करते नेत्र तृप्त नहीं होते। हे भगवान ! अभी मेरे कैसे पुण्य का उदय आया है तथा कैसी काल लब्धि आ प्राप्त हुई है जिसके निमित्त से मैने सर्वोत्कृष्ट त्रिलोक्य पूज्य देव को प्राप्त किया, अत: मेरा मनुष्य भव धन्य है जो आपके दर्शन करते सफल हुआ। पहले की अनन्त पर्यायें आपके दर्शन बिना निष्फल गयीं। हे भगवान ! आपने पूर्व में तीन लोक की संपदा जीर्ण तिनके के समान छोडकर, संसार देह भोगों से विरक्त होकर संसार को असार जानकर, मोक्ष को उपादेय मानकर स्वयमेव भगवती दीक्षा ग्रहण की। तत्काल ही मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर शीघ्र ही निरावरण केवलज्ञान सूर्य का उदय हुआ, लोकालोक के अनन्त पदार्थ सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों सहित, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सहित तीन काल के सारे चराचर पदार्थ एक समय में आपके ज्ञान रूपी दर्पण में स्वयं ही बिना खींचे आकर झलके, उनकी महिमा कहने में सहस्त्र जिह्वायें, सौ इन्द्र भी तथा वचन ऋद्धि धारी गणधर आदि महायोगीश्वर भी समर्थ नहीं हो सके / दिव्यध्वनि की महिमा :- भव्य जीवों के पुण्य के उदय से आपकी दिव्यध्वनि ऐसी प्रकट हुई है, जो एक अन्तर्मुहूर्त में ऐसा तत्व उपदेश करती है जिसकी रचना (उस उपदेश को) शास्त्रों में लिखी जावें तो उन शास्त्रों से अनन्त लोक पूर्ण होजावें। अतः हे भगवान ! आपके गुणों की महिमा कैसे की जा सकती है ? हे भगवान ! आपकी वाणी का अतिशय ऐसा है कि वाणी खिरती तो अनक्षर रूप है तथा अनुभव भाषा रूप होती है पर भव्य जीवों के कानों के निकट वह पुद्गल वर्गणा शब्द रूप परिणम . जाती है / चतुर निकाय के असंख्यातों देव-देवांगनाओं ने संख्यात वर्षों पर्यन्त जो प्रश्न विचारे थे तथा संख्यात मनुष्य तिर्यंचों ने बहुत काल से जो