Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 206 ज्ञानानन्द श्रावकाचार संदेह न करें / हम क्या सेवा करें, आपने भी अवधिज्ञान से सारा वृतांत जान ही लिया है / धन्य है आपकी अपूर्व बुद्धि ! धन्य है आपका मनुष्य भव, जिसमें आपने संसार को असार जानकर निज आत्म कल्याण के लिये जिनधर्म की आराधना की तथा यह फल पाया है। ___ जिन धर्म की महिमा:-धन्य है जिनधर्म जिसके प्रसाद से सर्वोत्कृष्ट वस्तु भी प्राप्त हो जाती है / जिनधर्म के अतिरिक्त संसार में अन्य कोई भी सार पदार्थ नहीं है / ससार में जितना भी सुख है वह एक जिनधर्म से ही प्राप्त होता है, अत: जिनधर्म ही एक कल्याण रूप है, उसकी महिमा वचन अगोचर है / हजारों जिह्वाओं से सुरेन्द्र भी जिनधर्म की महिमा कहने का पार नहीं पाते हैं, तो इसमें क्या आश्चर्य है / जिनधर्म का फल तो सर्वोत्कृष्ट मोक्ष की प्राप्ति है, जहां अनन्त काल तक अविनाशी, अतिन्द्रिय, बाधा रहित, अनुपम, निराकुल, स्वाधीन, संपूर्ण सुख मिलता है तथा लोकालोक को प्रकाशित करने वाला ज्ञान प्राप्त होता है / अनन्त-चतुष्टय संयुक्त आनन्द-पुंज अरिहन्त तथा सिद्ध ऐसे मोक्ष सुख का निरन्तर भोग करते हैं अतः अत्यन्त तृप्त हैं तथा तीन लोक में जगत के द्वारा पूज्य हैं। उनको पूजने वाले उनके ही सदृश्य हो जाते हैं, अत: हे प्रभो ! जिनधर्म की महिमा हमसे तो कही नहीं जाती। ___ आप धन्य हैं जिन्होंने ऐसे जिनधर्म को पिछले भव में आराधा था, जिसके माहात्म्य से यहां आकर अवतार लिया है, यह आपकी पूर्व कमाई के फल हैं, इसे निर्भय चित्त से अंगीकार करें तथा मनवांछित देवोपुनीत सुख भोगें, मन की आकांक्षा को दूर से ही त्यागें / हे प्रभो ! हे नाथ ! हे दयालु ! जिनधर्म वत्सल, सबको प्यारे मेरे जैसे देवों द्वारा पूज्य, असंख्यात देवांगनाओं के स्वामी अब आप ही हैं, अपने किये कार्य का फल धारण करें। हे प्रभो ! हे सुन्दर आकारवाले देवों के प्रिय ! हमें आज्ञा करें, वही हम