Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 232 ज्ञानानन्द श्रावकाचार धातुमय मूर्ति सदा शाश्वत बना हूँ, उसका अवलोकन करते मरण आदि का दुःख कैसे व्याप्त हो सकेगा ? ___ मैं और कैसा हूँ ? ज्ञानानन्द निजरस से पूर्ण हूँ, शुद्धोपयोगी हूँ, ज्ञान रस का आचमन करता हूँ। ज्ञान अंजुलि के द्वारा शुद्धामृत का पान करता हूँ / यह निज शुद्धामृत मेरे स्वभाव से ही उत्पन्न हुआ है, अतः स्वाधीन है, पराधीन नहीं है अत: इसके भोग में कुछ भी परेशानी नहीं हैं / मैं और कैसा हूँ ? __ अपने निज स्वभाव में स्थित हूँ, अडोल हूँ, अकंप हूँ / स्वरस के अतिशय रूप से भरा हूँ तथा ज्वलित अर्थात दैदिप्यमान ज्ञान ज्योति से प्रकट अपने ही निज स्वरूप में स्थित हूँ / देखो ! इस चैतन्य स्वरूप की अद्भुत महिमा जिसके ज्ञान स्वभाव में समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव आकर झलकते हैं, पर वह ज्ञान स्वभाव ज्ञेय रूप नहीं परिणमित होता है / उसको जानते हुये भी अंश मात्र भी विकल्पता नहीं होती है, अत: निर्विकल्प, अभोगित, अतीन्द्रिय, अनुपम, बाधा रहित होने से उससे जो अखंड सुख उत्पन्न होता है वैसा सुख संसार में दुर्लभ है / अज्ञानी जीव को तो सुख का आभास मात्र है। मैं और कैसा हूँ ? ज्ञानादि गुणों से भरपूर हूँ। उन गुण आदि से गुणमय एक वस्तु हूँ अथवा अनन्त गुणों की खान हूँ। और कैसा हूँ ? मेरा चैतन्य स्वरूप ही जहां-तहां सर्वांग में व्याप्त है / जिसप्रकार नमक की डली में नमक (खारापन) व्याप्त होता है अथवा शक्कर (मिश्री) की डली में सर्वत्र मीठापन व्याप्त होता है अथवा जैसे शक्कर की कणिका में अकेला एक अमृत ही व्याप्त होता है, वैसे ही मैं भी एक ज्ञान का बना हुआ पिंड हूँ। ___ मेरे सर्वांग में ज्ञान ही ज्ञान का पुंज है तथा इसीप्रकार मानों शरीर का निमित्त पाकर शरीर के आकार रूप मेरा ही आकार है तथा वस्तु द्रव्य