Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ समाधिमरण का स्वरूप 231 वस्तु-स्वभाव को विचारने से किसी के कुछ भी नहीं हैं / जो वस्तु सारभूत होती तो वह स्थिर रहती, नाश को क्यों प्राप्त होती ? अतः मैं ऐसा जानकर सर्व लोक में पुद्गल की जितनी पर्यायें हैं उनका ममत्व छोडता हूं तथा उसीप्रकार इस शरीर का भी ममत्व छोडता हूं / शरीर के जाने का मेरे परिणामों में अंश मात्र भी खेद नहीं है / ये शरीर आदि जोजो सामग्री हैं वे चाहे जैसे परिणमन करें, मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है / चाहे ये छीजें, चाहे भीजें, चाहे प्रलय को प्राप्त हों, चाहे अब आ मिले, चाहे जाती रहें, मुझे कुछ भी मतलब नहीं है / देखो ! मोह का प्रत्यक्ष स्वभाव, ये सब वस्तुयें पर हैं तथा विनाशीक भी हैं, पर-भव में तथा इस भव में दुःखदायी हैं, फिर भी यह संसारी जीव इन्हें अपनी जानकर इनकी रक्षा ही करने की चेष्टा करता है / मैं तो इनका ऐसा परिणमन देख कर ज्ञाता-दृष्टा हुआ हूँ / मेरा तो एक ज्ञान-स्वभाव है, उस ही का अवलोकन करता हूँ / मृत्यु का आगमन देखकर मैं डरता नहीं हूँ / काल तो इस शरीर का होगा, मेरा नहीं / जैसे मक्खी दौड-दौड कर मिष्ट आदि वस्तुओं पर ही जा कर बैठती है, अग्नि पर कभी नहीं बैठती, वैसे ही यह मृत्यु दौड-दौड कर शरीर ही का भक्षण करती है, मुझ से दूर ही भागती है। ___ मैं तो अनादि काल का अविनाशी चैतन्यदेव लोक द्वारा पूज्य ऐसा पदार्थ हैं, जिसपर काल का जोर चलता नहीं है / अतः अब कौन मरेगा, कौन जीवेगा, कौन मरण का भय करे / मुझे तो मरण दिखता नहीं है / जो मरेगा वह तो पहले ही मरा (जड) था तथा जो जीता है वह पहले से ही जीता था वह कभी मरेगा नहीं / मोह के कारण अन्यथा भासित होता था सो अब मेरा मोह कर्म नष्ट हो गया है, इसलिये जैसा वस्तुका स्वभाव है वैसा ही मुझे प्रतिभासित हो रहा है / उसमें जन्म-मरण तथा सुख-दुःख कुछ दिखते नहीं हैं, अतः अब मैं क्यों सोच करूं ? मैं तो एक चैतन्य