Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 233 समाधिमरण का स्वरूप स्वभाव को विचारने पर तीन लोक प्रमाण मेरा आकार है / अवगाहना शक्ति के कारण वर्तमान आकार में इसका आकार ही समा गया है / एक-एक प्रदेश में असंख्यात प्रदेश भिन्न-भिन्न स्थित है / सर्वज्ञ देव ने इसीप्रकार अलग-अलग देखे हैं / इनमें संकोच विस्तार की शक्ति है / ___ मेरा निज स्वरूप और कैसा है ? अनन्त आत्मिक सुख का भोक्ता है, केवल सुख की ही मूर्ति है चैतन्य पुरुषाकार है / जिसप्रकार मिट्टी के सांचे (शुद्ध रूपा अर्थात चांदी डालकर ) एक शुद्ध चांदी मय धातु का पिंड रूप बिम्ब बनाया जाता है, उसीप्रकार शरीर में आत्माकार स्वभाव से ही जानना / मिट्टी का सांचा समय पाकर गल जावे अथवा नष्ट हो जावे, फूट जावे तब भी वह बिम्ब ज्यों का त्यों रह जाता है, बिम्ब का नाश होता नहीं / दो वस्तुयें (आत्मा और शरीर) पहले से ही भिन्नभिन्न थीं, एक का नाश होने पर दूसरी का नाश कैसे हो ? ऐसा नित्य नियम है। उसीप्रकार शरीर काल पाकर गले तो गलो मेरे स्वभाव का तो विनाश है नहीं / मैं किस बात का सोच करूं? यह चैतन्य स्वरूप आकाशवत निर्मल से भी निर्मल है / जैसे आकाश में किसी प्रकार का विकार नहीं है, वह तो एक शुद्ध निर्मलता का पिंड है / यदि कोई आकाश को खडग से छेदना चाहे अथवा अग्नि से जलाना चाहे अथवा जल से गलाना जाहे तो वह आकाश छेदा भेदा नहीं जा सकता। कुछ भी जलो, कुछ भी गलो किसी भी प्रकार उस आकाश का नाश नहीं है / कोई आकाश को पकडना चाहे तथा तोडना चाहे तो वह आकाश कैसे पकडा अथवा तोडा जा सकता है। ___ उसीप्रकार मैं भी आकाशवत अमूर्तिक, निर्मल, निर्विकार, अकेला, निर्मलता का एक पिंड हूँ, मेरा किसी भी प्रकार से नाश होता नहीं, हो सकता नहीं, यह नियम है / यदि आकाश का नाश हो सकता हो तो मेरा