Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 228 ज्ञानानन्द श्रावकाचार हैं, कायरपने को दूर से ही छोडते हैं / सम्यग्ज्ञानी पुरुष कैसे हैं ? उनके हृदय में आत्म स्वरूप दैदिप्यमान प्रकट प्रतिभासित हो रहा है / कैसा प्रतिभासित हो रहा है ? ज्ञान-ज्योति को लिये आनन्द रस से झरता हुआ साक्षात पुरुषाकार अमूर्तिक चैतन्य का घनपिंड, अनन्त गुणों से पूरित चैतन्य देव मैं हूँ, ऐसा जानते हैं / उनको (अपने चैतन्य स्वरूप के) अतिशय से पर-द्रव्यों में रंच मात्र भी राग नहीं होता है / क्यों नहीं होता है ? अपने निज स्वरूप को वीतराग, ज्ञाता-दृष्टा, पर-द्रव्यों से भिन्न, शाश्वत, अविनाशी जाना है, तथा उसके अतिशय से पर-द्रव्यों का (स्वभाव) गलना-बनना, क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभाव से भली प्रकार भिन्न अच्छी तरह जाना है / अतः सम्यग्ज्ञानी पुरुष मरण से क्यों डरें ? इस ही कारण सम्यग्ज्ञानी पुरुष मरण के अवसर पर क्या भावना भाते हैं तथा क्या विचार करते हैं ? __ऐसा जानते हैं कि अब इस शरीर का आयुबल अल्प रह गया है, यह चिन्ह मुझे प्रतिभासित हो रहे हैं, अत: मुझे सावधान होना उचित है, विलम्ब करना उचित नहीं है / जैसे सुभट रण-भेरी बजने के बाद दुश्मनों पर चढने में क्षण भर की भी देर नहीं करता, उसे वीर-रस चढ जाता है। मैं कब जाकर बैरियों से भिडूं तथा कब उन बैरियों को जीतूं, ऐसा जिसका अभिप्राय जाग रहा है। ___ उसीप्रकार अब मुझे भी काल को जीतने का अभिप्राय है / इसलिये हे परिवार, कुटुम्ब बंधुओ ! आप सुनो, अहो देखो इस पुद्गल-पर्याय का चारित्र जो आंखों देखते उत्पन्न हुआ था उसीप्रकार अब विनश जावेगा / मैं तो पहले ही इसका स्वभाव विनाशशील जानता था / अब यह अवसर प्राप्त हुआ है / अब इस शरीर की आयु तुच्छ रह गयी है, उसमें भी यह क्षण-क्षण गलता (क्षीण होता) जा रहा है, इसे मैं ज्ञातादृष्टा हुआ देख रहा हूँ।