Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 224 ज्ञानानन्द श्रावकाचार कैसे-कैसे दु:खों को सहता है ? कभी तो नरक में जाता है, कभी तिर्यंच गति में जाता है, कभी मनुष्य तो कभी देव गति में जाता है / अतः संसार से उदासीन होकर निश्चय-व्यवहार धर्म का ही निरन्तर सेवन करना योग्य है। (4) एकत्व अनुप्रेक्षा :- अब एकत्व अनुप्रेक्षा का चितवन करता है / देखो भाई ! यह जीव तो सदा अकेला है, इसके परिवार कुटुम्ब है नहीं / नरक में गया तो अकेला गया, यहां आया तो अकेला आया, यहां से जावेगा तो अकेला जावेगा / ऐसे में हमारे अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख, अनन्तवीर्य यह ही शाश्वत परिवार है, जो मेरे साथ है और सदैव साथ रहेगा। (5) अन्यत्व अनुप्रेक्षा :- अब अन्यत्व अनुप्रेक्षा का चितवन करता है / देखो भाई ! ये छह द्रव्य अनादि काल से भिन्न-भिन्न अलगअलग एक क्षेत्रावगाह एकत्रित हैं, फिर भी कोई किसी से मिलता नहीं है। ऐसा अनादि से ही वस्तु का स्वभाव है, इसमें जरा भी संदेह नहीं है / मैं तो चैतन्य स्वरूप अमूर्तिक हूँ तथा ये शरीर जड मूर्तिक है। इससे मैं किसप्रकार मिल सकता हूँ (अर्थात् मैं और शरीर भिन्न-भिन्न हैं तथा सदैव भिन्न-भिन्न रहेंगे) / इसका स्वभाव अलग है मेरा स्वभाव अलग है, इसके प्रदेश अलग हैं, मेरे प्रदेश अलग हैं / इसके द्रव्य-गुण-पर्याय अलग हैं तथा मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय इससे अत्यन्त भिन्न हैं, अत: मैं इससे अभिन्न कैसे हो सकता हूँ ? मैं तो त्रिकाल भिन्न ही हूँ। ____(6) अशुचि अनुप्रेक्षा :-अब अशुचि अनुप्रेक्षा का चितवन करता है / देखो भाई ! यह शरीर अत्यन्त अशुचि है घिनावना है / इतने दिन इस शरीर का पोषण किया पर जब काम पडा तो इसने धोखा ही दिया / इस शरीर को सारे द्वीप-समुद्रों के पानी से नहलाओ, धोओ तब भी पवित्र नहीं होता है। यह जड अचेतन का अचेतन ही रहा / इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति ऐसे शरीर से कैसे प्रीति करें ? अर्थात् कभी नहीं करते /