Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 238
________________ 223 स्वर्ग का वर्णन करना योग्य है / छल कपट, विलम्ब करना उचित नहीं हैं। सो अब वह देव इस उपदेश को पाकर कुछ दिन वहां श्रीजी की पूजा करने लगा तथा बारम्बार श्रीजी को याद करते हुये धर्म बुद्धि में ही रहते हुये बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने लगा / क्या चिन्तवन करने लगा ? बारह भावना (अनुप्रेक्षा) (1) अनित्य अनुप्रेक्षा :- देखो भाई ! कुटुम्ब परिवार है वह बादल की भांति विलय हो जावेगा / जैसे दसों दिशाओं से आकर संध्या के समय वृक्ष पर पक्षी विश्राम लें तथा प्रातः होते ही पुन: उड जावें अथवा बाजार में अथवा मेले में अनेक व्यापारी एवं तमाशा करने वाले आ एकत्रित हो जाते हैं तथा मेला हाट समाप्त होने पर चले जाते हैं, उसीप्रकार कुटुम्ब परिवार है / माया (धन संपत्ति) है वह बिजली की चमक के समान चंचल है, जीवन है वह ओस की बूंद के समान है / आयुबल है वह अंजुली के जल के समान है / इस ही प्रकार सर्व ठाठ विनाशशील हैं, क्षण भंगुर हैं, कर्म जनित हैं, पराधीन हैं / इस सामग्री में मेरा कुछ भी नहीं है, केवल मेरा चैतन्य स्वरूप ही सदा अविनाशी (सदा मेरे साथ रहने वाला) है / मैं किसका सोच करूं (किस के सम्बन्ध में चिंता करूं)। (2) अशरण अनुप्रेक्षा :- फिर अशरण अनुप्रेक्षा का चितवन करता है / देखो भाई ! संसार में देव, विद्याधर अथवा इन्द्र, धरणेन्द्र, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, रुद्र, चक्रवर्ती, कामदेव आदि को भी कोई शरण नहीं है / ये सब भी काल के वश हैं तब अन्य किसी को कोई कैसे शरण हो सकता है / अत: बाह्य में तो मुझे पंचपरमेष्ठी शरण हैं तथा निश्चय से तो मेरा निज स्वरूप ही मुझे शरण है, अन्य कोई मुझे त्रिकाल में भी शरण नहीं है। ____ (3) संसार अनुप्रेक्षा :- अब संसार अनुप्रेक्षा का चिंतवन करता है। देखो भाई ! ये जीव भूल से मोह के वशीभूत हुआ व्यर्थ ही संसार के

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