Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ स्वर्ग का वर्णन . 203 बारम्बार दीनता के वचन कह कर उनसे स्वर्गों के सुख का स्वरूप पूछता है / शिष्य और कैसा है ? अत्यन्त पुण्य के फल को जानने की उसकी अभिलाषा है। __ ऐसा प्रश्न होने पर श्रीगुरु अमृत वचनों में कहते हैं / कैसे हैं वे परम निर्ग्रन्थ वनवासी ? उनका चित्त दया से भीगा है / वे इसप्रकार कहने लगे - हे पुत्र ! हे भव्य ! हे सरल चित्त ! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है, बहुत भला किया। अब तू सावधान होकर सुन, मैं तुझे जिनवाणी के अनुसार कहता हूं। ___ यह जीव जिनधर्म के प्रभाव से स्वर्गों में जाकर उत्पन्न होता है। यहां की पर्याय का नाश कर अन्तर्मुहूर्त काल में वहां उत्पन्न हो जाता है / जैसे मेघ पटल का विघटन होते ही दैदिप्यमान सूर्य बादलों के बाहर निकलता है, वैसे ही उपपाद शैय्या का पटल दूर होते ही वह पुण्याधिकारी सम्पूर्ण कला संयुक्त, ज्योति का पुंज, आनन्द, सौम्यमूर्ति, सबको प्यारा, सुन्दर देव (उपपाद शय्या पर) उत्पन्न होता है। जैसे बारह वर्ष का राजहंस (राजा का बेटा) महा मूल्यवान आभूषण पहने निद्रा से जाग उठा हो / ___ वह देव कैसा है ? छहों पर्याप्तियां पूर्णकर शरीर की कांति सहित, रत्नमय आभूषण-वस्त्र पहने सूर्य के समान उदित होता है / अनेक प्रकार के वैभव देखकर विस्मय सहित दसों दिशाओं को देखता है। मन में यह विचार करता है कि मैं कौन हूँ, कहां था, कहां से आया हूँ, यह स्थान कौन सा है ? ये अपूर्व एवं रमणीक, अलौकिक, मन रमने योग्य, अद्भुत सुख का निवास, ऐसा अद्भुत यह कौन सा स्थान है ? यहां रत्नों की ज्योति से जगमगाता उद्योत हो रहा है, यह मेरा देव जैसा सुन्दर आकार किस कारण हुआ है ? जहां-तहां सुन्दर तथा मन को मनोज्ञ देवियों जैसी दिखने वाली ये कौन हैं, जो बिना बुलाये ही आकर मेरी स्तुति कर रही हैं। नम्र होकर नमस्कार विनयपूर्वक मीठे वचन बोल रही हैं, ये कौन हैं ? यह संदेह कैसे मिटे ? ऐसी सामग्री कदाचित सच भी हो सकती है ?