Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ सामायिक का स्वरूप 201 (वह सूक्ष्म एकेन्द्रिय शरीर) वज्र आदि पदार्थो में भी अटकता नहीं है, न अग्नि से जलता, न पानी में गलता, इन्द्र महाराज के वज्र से भी नष्ट होने योग्य नहीं है, ऐसे सूक्ष्म शरीर को लेकर चल सकने ग्रहण करने की सामर्थ्य एकेन्द्रिय (लब्ध अपर्याप्तक) की नहीं है / इसी कारण इसका नाम स्थावर संज्ञा है। दो इन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय पर्यन्त, ज्यों-ज्यों वीर्यान्तराय का क्षयोपशम अधिक होता है, वैसे-वैसे ही शक्ति प्रकट होती है / दो इन्द्रिय जीव अपने शरीर को लेकर चलता है, किंचित मात्र खाने की वस्तु मुख में लेकर भी चल सकता है / इस ही प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव, तीर्थंकर महाराज आदि ऋद्धि धारी मुनियों की शक्ति की अधिकता जानना तथा केवली भगवान के सम्पूर्ण वीर्य का पराक्रम जानना। जितना आकाश द्रव्य का प्रमाण है उतने रोमों का लोक हो तो, ऐसे बडे अनन्तानन्त लोक उठाने की सामर्थ्य तो सिद्ध भगवान की है तथा इतनी ही सामर्थ्य सर्व केवलियों में है / दोनों को ही वीर्यान्तराय का नाश होने से सम्पूर्ण सुख (बल) प्रकट हुआ है / मेरे स्वरूप की भी महिमा ऐसी ही है, वह मुझे प्रकट हो। ___ मैने अज्ञानता में यह क्या अनर्थ किया ? कैसी-कैसी पर्यायें धारण करके परम दुःखी हुआ, अतः धिक्कार हो मेरी भूल को तथा मिथ्यात्वी लोगों की संगति को / धन्य है जिनधर्म को तथा पंच परम गुरु एवं श्रद्धानी पुरुष जिनके अनुग्रह से मैंने अपूर्व मोक्षमार्ग प्राप्त किया है / मोक्षमार्ग कैसा है ? स्वाधीन है, अत: अत्यन्त सुगम है / मैने तो महाकठिन जाना था, परन्तु श्री परमगुरु ने तो सुगम मार्ग बताया है / अब मुझे ऐसे मोक्षमार्ग में चलने में खेद नहीं होगा, भ्रम से ही खेद माना था / अहो परमगुरु ! आपकी महिमा, अनुमोदना कहां तक करूं ? मैंने मेरी महिमा को जो सिद्धों के समान है आपके निमित्त से ही जाना है / इति सामायिक स्वरूप सम्पूर्णम् /