Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 192 ज्ञानानन्द श्रावकाचार प्रतिमाजी की विनय :- प्रतिमाजी के केसर, चन्दन आदि लगाना अयोग्य है, उसका नाम विलेपन है, जिसका अनेक शास्त्रों में निषेध किया है / कोई भवानी, भैरव आदि कुदेवों की मूर्ति अपने सम्मुख स्थापित कर उसकी पूजा करे, नमस्कार करे, तथा श्रीजी की प्रतिमा का विचार (आदर) नहीं करे, ऊंचे सिंहासन पर बैठा कर जगत से स्वयं को पुजवाये, मालियों (एक स्पर्श शूद्र जाति विशेष) से अनछना जल मंगाकर मैले वस्त्र से प्रतिमाजी का प्रक्षाल करें तथा जितने स्त्री-पुरुष आवें वे सब विषय-कषाय की वार्ता करते रहें, धर्म का तो लेष मात्र काम नहीं, इत्यादि अविनय का कहां तक वर्णन करें ? पहले वर्णन किया ही है तथा प्रत्यक्ष देखने में आरहा है, उसको क्या लिखना ? सुभौम चक्रवर्ती एवं हनुमानजी की माता (अंजना ने पूर्व भव में) एवं श्रेणिक महाराजा ने नमोकार मंत्र का, प्रतिमाजी का, निर्ग्रन्थ गुरु का तनिक अविनय किया था जिससे उनको कैसा पाप उत्पन्न हुआ ? तथा मैढक एवं शूद्र माली की लडकी ने, जो श्री जी के मंदिर की देहली पर पुष्प चढाते थे अथवा चढाने का अल्प सा भाव किया था, स्वर्ग पद पाया। जिनधर्म का प्रभाव महा अलौकिक है, अत: प्रतिमाजी, शास्त्रजी, निग्रन्थ गुरु की अविनय का विशेष भय रखना चाहिये। __ यहां कोई प्रश्न करे - प्रतिमाजी तो अचेतन है, उसे पूजने से क्या फल निकलेगा ? उसका समाधान - हे भाई ! मंत्र-तंत्र-यंत्र-औषध-चिन्तामणि रत्न-कामधेनु-चित्राबेल-पारस-कल्पवृक्ष अचेतन हैं, क्या वे मनवांछित फल नहीं देते हैं ? तथा चित्र में बनी स्त्री काम भाव जगाने में कारण होती है जिसका फल नरक निगोद लगता है / उसीप्रकार प्रतिमाजी जो निराकार, शान्त मुद्रा, ध्यान अवस्था को धारण किये हैं उसका दर्शन करने से या पूजन करने से मोह कर्म गलता है, राग-द्वेष भाव दूर होते हैं तथा ध्यान का स्वरूप जाना जाता है / तीर्थंकर देव अथवा सामान्य केवली की छवि