Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 198 ज्ञानानन्द श्रावकाचार चाहते हुये पंच परम गुरु का स्मरण करें / उनके गुणों की बारंबार अनुमोदना करें, गुणगान गावें, उनके स्तोत्र पढ़ें अथवा आत्मा का ध्यान करें अथवा वैराग्य का विशेष विचार करें। मेरा क्या होगा ? मैं इस घनघोर संसार के महादुःखों से कब छूटूंगा। वह समय मेरे लिये कब आवेगा जब दिगम्बर दशा धारण कर, परिग्रह की गठरी उतार कर बनवासी होकर दूसरों के घर आहार लूंगा। बाईस परिषह सहूंगा (को जय करूंगा), दुर्द्धर तप करूंगा, मोह-वज्र का नाश कर पंचाचार आचरूंगा तथा अपने निज स्वरूप का अनुभव करूंगा / उसके अतिशय से वीतराग भाव की वृद्धि होगी, मोह कर्म नष्ट होगा, घातिया कर्म शिथिल होकर क्षय होंगे। अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय प्रकट होगा तथा मैं सिद्धों के समान लोकालोक को देखने-जानने वाला हो जाऊंगा। अनन्तसुख, अनन्तवीर्य के पुंज, कर्म-कलंक से रहित महा निराकुल, आनन्दमय सर्व दु:खों से रहित कब होऊंगा। ___ कहां तो मेरी (स्वभाव रूप) यह दशा तथा कहां नरक-निगोद आदि महापाप की मूर्ति, महादुःख मयी आकुलता का पुंज, नाना पर्यायों को धारण करने वाली दशा / मैने जिनधर्म के अनुग्रह के बिना अनादि काल से अब तक सिंह, सर्प, कौआ, कुत्ता, चिडिया, कबूतर, चींटी, मकडी आदि महा अनिष्ट सर्व पर्यायों को धारण किया है। एक-एक पर्याय अनन्त बार धारण की तो भी जिनधर्म के बिना संसार दु:खों का अब तक अन्त आया नहीं / अब किसी महाभाग्य के उदय से यह सर्वश्रेष्ट महारसायन, अद्वैत अपूर्व श्रीजिनधर्म पाया है उसकी महिमा कौन कह सकता है ? या तो मैं ही जानता हूं या सर्वज्ञ ही जानते हैं। अत: यह वीतराग प्रणीत जिनधर्म जयवन्त प्रवर्ते, फूलेफले, वृद्धि को प्राप्त हो, मुझे संसार समुद्र से निकाले / बहुत क्या प्रार्थना करूं? ऐसे चिन्तवन सहित सामायिक