Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ सम्यग्चारित्र 177 जो अनन्त हैं तथा एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश वाले तक हैं / इनमें चार द्रव्य तो अनादि से स्थिर, ध्रुव स्थित हैं (हिलते-डुलते नहीं हैं ) पर जीव तथा पुद्गल द्रव्य गमनागमन भी करते हैं / ये तीनों लोक आकाश द्रव्य के बीच में स्थित हैं / इनका कर्ता कोई नहीं है तथा ये छहों द्रव्य अनन्त काल तक स्वयं सिद्ध बने रहेंगे इनमें से किसी का भी कभी भी नाश नहीं होगा। जीव अपने रागादि भावों के कारण पुद्गल पिंड रूप प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग रूप चार प्रकार के बंध से स्वयं बंधता है / उनके उदय में जीव की दशा विभाव-भाव रूप होती है। उसके ज्ञानानन्द मय निज स्वभाव घाता जाता है / जीव तो अनन्त सुख का पुंज है, कर्म के उदय के कारण महा आकुल हुआ परिणमन करता है, उसके दुःख की कथा कहने में कोई समर्थ नहीं है / पाप से निर्वृत्ति का उपाय सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र है। __हे भगवान ! उनका उपदेश करने वाले आप ही हैं, आप ही संसार समुद्र में डूबते प्राणियों को हस्तावलंब हैं / आपका उपदेश न होता तो ये सर्व प्राणी संसार में डूबे ही रहते, तो बडा गजब हो जाता। परन्तु धन्य आप, धन्य आपका उपदेश, धन्य आपका जिनशासन, धन्य आपका बताया मोक्ष मार्ग। __ आपका अनुसरण करने वाले मुनि आदि सत्पुरुष भी उसकी महिमा करने में समर्थ नहीं हैं / कहां तो नरक निगोद के दु:ख तथा ज्ञान-वीर्य की न्यूनता एवं कहां मोक्ष का सुख तथा ज्ञान-वीर्य की अधिकता (पूर्णता)? हे भगवान ! आपके प्रसाद से यह जीव चतुर्गति के दु:खों से छूट कर मोक्ष सुख को प्राप्त करता है, ऐसे परम उपकारी आप ही हैं, अतः हम आपको नमस्कार करते हैं। ___ करणानुयोग का उपदेश :- हे भगवान ! आपने ऐसा तत्वोपदेश किया है - यह अधोलोक है, यह मध्यलोक है, यह ऊर्ध्व लोक है / ये