Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 182 ज्ञानानन्द श्रावकाचार - असंख्यात लोक वर्ग स्थान आगे योगों के अविभागी प्रतिच्छेद हैं। वह भी असंख्यात का ही एक भेद है / हे भगवान ! ऐसा उपदेश भी आपने ही दिया है। ___ पुन: यह असंख्यात द्वीप, समुद्र हैं, ये अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र है, उसका भी निरूपण आपने ही किया है। ये ज्योतिष मंडल है, उसके प्रमाण का तथा अलग-अलग द्वीप समुद्रों को आपने ही बताया है / पुद्गल के परमाणु का प्रमाण, द्विअणुक स्कंध के प्रमाण से लेकर महास्कंध पर्यन्त आपने ही कहे हैं / इत्यादि अनन्त द्रव्यों के तीन काल सम्बन्धी द्रव्य-गुण-पर्याय तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सहित अन्य भी स्थान लिये अनन्त विचित्रता एक समय में आपने ही देखी है / आपके ज्ञान की महिमा अद्भुत है, आपके ही ज्ञान गम्य है, अत: आपके ज्ञान को मेरा पुन: नमस्कार हो। हे भगवन ! आपकी महिमा अथाह है / आपके गुणों की महिमा देख-देख कर आश्चर्य होता है, आनन्द का समूह उत्पन्न होता है, उससे हम अत्यन्त तृप्त हैं / हे भगवन ! दया अमृत के द्वारा भव्य जीवों का आप ही पोषण करते हैं, आप ही तृप्त करते हैं / आपके उपदेश के बिना सारा लोकालोक शून्य हुआ, उसमें ये सब जीव शून्य हो गये हैं / अब आपके वचन रूपी किरण से मेरा अनादि काल का मोह तिमिर दूर हो गया है / अब मुझे आपके प्रसाद से तत्त्व-अतत्त्व का स्वरूप भासित हुआ है, मेरे ज्ञान लोचन खुल गये हैं, उनके सुख की महिमा कही नहीं जाती। अत: हे भगवन ! आप संसार के संकटों को काटने के लिये अद्वितीय परमवैद्य प्रतीत होते हैं / अत: आपके चरणार्विन्द से बहुत अनुराग हो गया है। हे भगवान ! भव-भव में, पर्याय-पर्याय में एक आपकी ही चरणों की सेवा करूं / वे पुरुष धन्य हैं जो आपके चरणों की सेवा करते हैं, आपके गुणों की अनुमोदना करते हैं, आपके रूप को निरखते हैं, आपका गुणानुवाद गाते हैं / आपके वचनों को सुनते हैं तथा मन में निश्चय