Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 181 सम्यग्चारित्र से ही पूर्व में दीर्घ काल से संचित कर्मो की निर्जरा होना बताया तथा निर्जरा के द्वारा निज आत्मा को यथाजात केवलज्ञान, केवलसुख होना प्रकट दिखाया तथा उसी का नाम मोक्ष कहा हित अथवा भिन्न रूप कहा। जीव नरक में जा पहुंचता है / यदि किसी क्षेत्र विशेष से मोक्ष की सिद्धि होती हो तो सर्व सिद्धों की अवगाहना में अनन्त पांचों स्थावर, सूक्ष्म, बादर पाये जाते हैं, वे महा दु:खी नहीं होते। अत: निश्चय से अपने ज्ञानानन्द स्वभाव के घाते जाने का नाम ही बंध है / ज्ञानावरण आदि कर्मो का अभाव होने से (ज्ञानानन्द स्वभाव) स्फूरायमान हुआ जैसे सूर्य का प्रकाश बादलों से रुका हुआ था। बादलों का अभाव होने पर पूर्ण प्रकाश विकसित हुआ, तब जीव ऊर्ध्व जा स्थित हुआ। ___जीव का ऊर्ध्व गमन स्वभाव है, इसलिये ऊर्ध्वगमन किया। आगे धर्म द्रव्य का अभाव है अतः आगे गमन नहीं किया, यहां ही स्थित हुआ। अनन्त काल पर्यन्त सदैव परम सुख रूप रहेगा / तीन लोक, तीन काल तथा लोकालोक को देखने रूप ज्ञान दर्शन नेत्रों सहित अनन्त बल, अनन्त सुख के धारक सिद्ध महाराज तीन लोक द्वारा तीन काल पर्यन्त पूज्य हुये तिष्ठेगे। हे भगवान ! ऐसा उपदेश भी आपने ही दिया है / आपके उपकार की महिमा हम कहां तक कहें। ___ हम आपकी क्या भक्ति, पूजा, वंदना करें ? हम सब प्रकार से आपकी भक्ति, पूजा, वंदना आदि करने में असमर्थ हैं / आप परम दयालु हैं, अतः हमें क्षमा करें / हमको यह बडी असंभव चिंता है, हम आपकी स्तुति महिमा करते लज्जित होते हैं, पर हम क्या करें ? आपकी भक्ति ही मुझे वाचाल (वाध्य) करती है तथा आपके चरणों में नम्रीभूत करती है, अत: आपके चरणों में बारंबार नमस्कार हो, ये आपके चरण युगल ही मुझे संसार समुद्र में डूबने से बचाने वाले हैं। ___ अग्निकाय के जीव असंख्यात लोक के प्रदेश प्रमाण हैं, उनसे असंख्यात लोक वर्ग स्थान आगे निगोद का शरीर प्रमाण है, उनसे