Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 188 ज्ञानानन्द श्रावकाचार नमस्कार से, आज्ञा मानने से, जिनशासन का सेवन करने से दूर न हो जाता हो। कोई अज्ञानी पुरुष जिसकी बुद्धि मोह से ठगी गयी है, ऐसे अरिहन्त देव को छोडकर कुदेव आदि की सेवा करके, पूजा करके भी मन वांछित फल चाहता है तो वह मनुष्य नहीं राक्षस है / इस लोक में तथा परलोक में उसका बुरा ही होता है / जैसे कोई अज्ञानी अमृत को छोडकर विषयविष को पीता है, चिन्तामणी रत्न को छोडकर कांच के टुकडे को पल्ले से बांधता है, कल्पवृक्ष को काट कर धतूरा बोता हो, उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि जीव श्री जिनदेव को छोडकर कुदेव का सेवन करता है / बहुत क्या कहें ? भगवान की विनय :- हे भगवान ! ऐसा करिये कि मैं जन्म-मरण के दुःखों से निवृत हो जाऊं / अब मुझसे दुःख सहन नहीं होते / उन दुःखों का स्मरण करने मात्र से ही दुःख उत्पन्न होता है, तब कैसे सहा जावे ? अत: करोडों बात की एक बात यह है कि मेरा आवागमन निवारिये, अष्ट कर्मो से मुक्त करिये। केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवल सुख, अनन्तवीर्य यह जो मेरा चतुष्टय स्वरूप है उसका घात हुआ है वह घातिया कर्मो का नाश होकर मुझे प्राप्त हो जावे / मुझे स्वर्ग आदि की चाह नहीं है / मैं तो परमाणु मात्र का भी त्यागी हूं / मैं तीन लोक में स्वर्ग, चक्रवर्ती, कामदेव, तीर्थंकर तक के पद भी नहीं चाहता हूं। मुझे तो मेरे स्वभाव की ही वांछा है, किसी भी प्रकार बस स्वभाव की ही प्राप्ति हो जावे / सुख आत्मा का स्वरूप भाव (स्वभाव भाव) है तथा मैं एक सुख का ही अर्थी हूँ, अतः निज स्वरूप की प्राप्ति अवश्य चाहता हूँ। आपके अनुग्रह अथवा सहायता के बिना ये कार्य सिद्ध नहीं होगा तथा तीन लोक त्रिकाल में आप के अतिरिक्त अन्य कोई सहाय नहीं है, अत: अन्य कुदेव आदि को छोड आपकी ही शरण में आया हूँ / मेरा कर्तव्य था वह मैं कर