Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ सम्यग्चारित्र 167 सम्यक्त्व का महत्त्व :- कर्म वर्गणा से तो सम्पूर्ण तीनों लोक घडे में घी के समान भरे पडे हैं / यदि कर्म वर्गणा से ही बंध हो, तो सिद्धों को भी बंध हो तथा यदि हिंसा से ही बंध होता हो तो श्री मुनिराज को भी बंध हो, यदि विषय भोगों से ही बंध होता हो तो अव्रत सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती, तीर्थंकरों (असंयमी अवस्था में) आदि को भी बंध हो। भरत चक्रवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे, वे सम्यक्त्व के माहात्म्य से षटखंड की विभूति, छियानवें हजार रानियों को भी भोग कर निर्बंध ही रहे तथा इस ही कारण दीक्षा के बाद अन्तर्मुहूर्त काल में उनने केवलज्ञान उपार्जित कर लिया। इसलिये सम्यक्त्व का अद्भुत महात्म्य है / ___यहां कोई प्रश्न करे :- यदि मुनि महाराज अथवा अव्रत सम्यग्दृष्टि को बंध नहीं है, तो चौथे गुणस्थान तक अनुक्रम से घटता-घटता बंध कैसे कहा है ? समाधान :- यह कथन तारतम्य की अपेक्षा है / बंध का एक मूल कारण दर्शन मोह है, जैसा बंध दर्शनमोह से है उसका अनन्तवां भाग बंध चारित्रमोह से है / अतः अव्रत सम्यग्दृष्टि से लेकर दसवें गुणस्थान तक जो अल्प बंध है उसे गिना नहीं है / निश्चयरूप से विचारा जावे तो दसवें गुणस्थान तक स्वयमेव रागादि पाये जाते हैं, यह भी शास्त्र में कहा है, सो न्याय (सत्य) ही है / जिस-जिस स्थान में जितना-जितना राग भाव है उतना-उतना मोह से बंध है, यह बात सिद्ध हुई। आठों कर्मो के बंध के लिये एक असाधारण कारण मोह कर्म ही है, अत: पहले मोह का ही नाश करना चाहिये। __ प्रायश्चित में धर्मबुद्धि विशेष होती है तथा जिसके धर्म बुद्धि विशेष हो तथा संसार के दुःखों का भय हो, वह ही गुरु से प्रायश्चित तथा दंड लेता है / उसके मन की बात कौन जानता था जिसके कारण उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई, परन्तु वह धर्मात्मा परलोक के भय के कारण प्रायश्चित तप अंगीकार करता है / इस तप से भी अनन्त गुणा फल विनय तप का है,