Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 172 ज्ञानानन्द श्रावकाचार दें / परन्तु भगवान मैं आपके अनन्तवीर्य का भार मस्तक पर कैसे रख पाऊंगा ? उसका भार मेरे से कैसे सहा जावेगा ? भगवान आप अनन्त बली है, मुझ असंख्यात बली पर आपके अनन्तबल का भार कैसे ठहरेगा ? अतः आगे बढ कर भगवान की सेवा करूं तो भगवान तो परम दयालु हैं, मुझे खेद नहीं उत्पन्न करावेंगे, जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है / भगवान वृद्धि के लिये मेघ सदृश्य हैं / अहो भगवान ! आकाश में यह सूर्य स्थित है, वह क्या है ? मानों आपके ध्यान रूपी अग्नि की कणिका ही है अथवा आपके नख की लालिमा का आकाश रूपी दर्पण में प्रतिबिम्ब ही है / आपके मस्तक पर तीन छत्र शोभित हैं, मानों छत्र के बहाने तीन लोक ही आपकी सेवा करने के लिये आये हैं। हे भगवान ! आपके ऊपर चौसठ चमर ढुरते हैं, मानों चमरों के बहाने इन्द्रों का समूह ही नमस्कार करता है / हे भगवान ! ये आपका सिंहासन कैसे शोभित हो रहा है ? मानों यह सिंहासन नहीं है, ये तीन लोक का समुदाय एकत्रित होकर आपके चरण कमलों की सेवा करने आया है / किस प्रकार आपकी सेवा करते हैं? ये भगवान अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हुये हैं तथा सिद्ध अवस्था में मेरे मस्तक पर अथवा कंधे पर स्थित होंगे / अहो भगवान ! यह आपके ऊपर अशोक वृक्ष स्थित है, वह तीन लोक के जीवों को शोक रहित करता है,। हे भगवान ! आपके शरीर की कांति जैसा शरीर वैसी ही भामंडल की ज्योति दसों दिशा में प्रकाश कर रही है, जिसमें भव्य जीवों को सातसात भव दर्पण की तरह प्रतिभासित होते हैं / हे भगवान ! आपके अभ्यन्तर के आत्मिक गुण तो अनन्तानन्त हैं, उनकी महिमा किससे कही जा सकती है ? आत्मा के अतिशय से शरीर भी ऐसा अतिशय रूप परिणमित हुआ है जिसका दर्शन मात्र से घातिया कर्म शिथिल हो जाते हैं, पाप प्रकृतियां प्रलय को प्राप्त हो जाती हैं, सम्यग्दर्शन जो मोक्ष का