Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 165 सम्यग्चारित्र धर्मोपदेश - ये पांच प्रकार के स्वाध्याय के भेद हैं / इनमें वांचना तो शास्त्र को पढना, पृच्छना अर्थात शंका उत्पन्न होने पर विशेष ज्ञानी से प्रश्न करना, अनुप्रेक्षा अर्थात बार-बार चिन्तन करना, आम्नाय जिस काल में जो स्वाध्याय योग्य है अथवा जो शास्त्र पाठ करने योग्य हो उसका उसी काल में अध्ययन करना, तथा धर्मोपदेश अर्थात धर्म का उपदेश देना। इसप्रकार पांच प्रकार से स्वाध्याय करने को स्वाध्याय तप कहते हैं / (11) व्युत्सर्ग अथवा उत्सर्ग तप :- जब तक जीवन है तब तक के लिये अथवा कुछ काल के लिये प्रमाण करके शरीर का त्याग करना अर्थात शरीर के ममत्व का त्याग करना, बाहुबली मुनि की तरह शरीर का किसी भी प्रकार का संस्कार नहीं करना। अपनी इच्छा से शरीर के अंग-उपांग का हलन-चलन नहीं करने के कारण इसे व्युत्सर्ग अथवा उत्सर्ग तप कहते हैं। (12) ध्यान तप :- “एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानं' अर्थात आर्तरौद्र ध्यानों को तो छोडना एवं धर्म ध्यान अथवा शुक्ल ध्यान करने को ध्यान तप कहते हैं। इसप्रकार बारह प्रकार के तपों का स्वरूप जानना / अब बारह प्रकार के तपों का फल कहते हैं - ___ बाह्य तपों का फल :- इनमें अनशन आदि चार तपों के द्वारा यह जीव स्वर्ग स्थान के कल्पवासी देवोपुनीत पद पाता है / मनुष्य पर्याय में थोडी सी भोग सामग्री छोडेगा, उसका अनन्त गुणा फल प्राप्त करेगा जो असंख्यात काल पर्यन्त निर्विघ्नपने रहेगा। महासुन्दर शरीर, अमृत के भोग से तृप्त असंख्यात काल तक निरोग, एक-सा गुलाब के फूल के समान महामनोज्ञ शरीर धारण किये आयु पर्यन्त निर्भय रहेगा / इसकी महिमा वचन अगोचर है, इसलिये कहां तक कहें ? आगे स्वर्ग के सुखों का विशेष वर्णन करेंगे, वहां से जान लेना। विविक्त शय्यासन तथा कायक्लेश से अत्यन्त अतिशयवाला, महा दैदिप्यमान, तेज, प्रताप संयुक्त