Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 122 ज्ञानानन्द श्रावकाचार आदि सर्व दोषों से भरा है, अतः ऐसे दोषों को जानते सुनते वे केवली होकर उस सदोष आहार को कैसे ग्रहण करेंगे ? मुनिराज भी सदोष आहार ग्रहण नहीं करते तब सर्व मुनियों द्वारा पूज्य त्रिलोकीनाथ इच्छा के बिना सदोष आहार को कैसे ग्रहण करें ? एक आहार लेने के बाद क्षुधा, तृषा, राग-द्वेष, जन्म मरण, रोग, शोक, भय, विस्मय, निद्रा, खेद, स्वेद, मद, मोह, अरति, चिंता ये अठारह दोष उत्पन्न हो जाते हैं / तब तो ऐसे अठारह दोष के धारक जो परमेश्वर हों वे तो अन्य मतियों के परमेश्वर के सदृश्य ही हुये। ___ यहां कोई प्रश्न करे :- तेरहवें गुणस्थान तक आहारक (अथवा) अनाहारक दोनों कहा है, वह कैसे है ? / उसका उत्तर देते हैं :- यह आहार है वह छह प्रकार का है - (1) कवल (2) कर्म-वर्गणा (3) मानसिक (4) ओज (5) लेप (6) नोकर्म / इनका अर्थ लिखते हैं - (1) कवल नाम तो मुख से ग्रास लेने का है, जो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, असैनी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य के पाया जाता है / (2) कर्म-वर्गणा का आहार नारकी जीवों के पाया जाता है / (3) मानसिक आहार मन में इच्छा होने पर कंठ से अमृत के झर जाने से तृप्त हो जाने को कहते हैं, जो चार निकाय के देव-देवांगनाओं के पाया जाता है / (4) ओजाहार :- पक्षी गर्भ से बाहर अंडा छोडते हैं, वह कितने ही दिनों तक कवला-आहार के बिना वृद्धि को प्राप्त होता है, उसमें वीर्य-रज- धातु पाये जाते हैं, उनके निमित्त से ही शरीर पुष्ट होता है / कोई कहते हैं कि हाथ लगा देने पर वीर्य गल कर अंडा खराब हो जाता है / (5) लेप आहार सर्वांग शरीर में व्याप्त हो उसे कहते हैं, वह एकेन्द्रिय पांचों स्थावरों के होता है / जैसे वृक्ष जड के द्वारा मिट्टी, जल को खींच सर्वांग अपने शरीर को परिणमाता है / ये चार प्रकार के आहार तो क्षुधा की निर्वृति करते हैं / (6) नोकर्म आहार तो पर्याप्ति पूर्ण करने का कारण है।