Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 132 ज्ञानानन्द श्रावकाचार है / यह जीव संसार में रुलता है वह एक मिथ्याधर्म के श्रद्धान से ही रुलता है / उनके रुलने का एक मात्र कारण एक यही है, अन्य नहीं / अन्य कोई कारण मानना भ्रम है / अतः धर्म-अधर्म का निर्णय करने की बुद्धि अवश्य होनी ही चाहिये। अधिक क्या कहें ? इसप्रकार श्वेताम्बरों की उत्पत्ति का तथा उनका स्वरूप कहा / स्त्री स्वभाव का वर्णन अब स्त्री का बिना सिखाये सहज ही जो स्वभाव होता है, उस स्वरूप का विशेष रूप से कथन करते हैं - मोह की मूर्ति, काम-विकार से आभूषित, शोक का मंदिर, धीरजता से रहित, कायरता सहित है, साहस से निवृत है, भय से भयभीत है, माया के कारण मलिन हृदय है / मिथ्यात्व तथा अज्ञान का घर है, अदया, झूठ, अशुचि अंग, चपल अंग, वाचाल नेत्र, अविवेक, कलह, निश्वास-रुदन, क्रोध, मान, माया, लोभ, कृपणता, हास्य, अंग-म्लानता, ममत्व आदि से भरी है। लट, संमूर्च्छन मनुष्य आदि त्रस-स्थावर जीवों की उत्पत्ति होने की थैली उसकी योनिस्थान कहा जाता है। किसी की अच्छी-बुरी बात को सुनने के बाद हृदय में रखने में असमर्थ है / मिथ्या बातें करने में प्रवीण है तथा विकथायें सुनने में आसक्त है / भांड, विकथा करने के लिये अत्यन्त व्याकुल रहती है / घर के षट कार्य करने में अति चतुर है, पूर्वापर विचार रहित है / पराधीन है, गाली गीत गाने में बडी वक्ता है / कुदेव आदि का रात्रि जागरण करने में, शीतकाल आदि के परिषह सहने में अति शूरवीर है / आरंभ-प्रारंभ आदि की सलाह देने में बडी चतुर है / धन एकत्रित करने में मक्खी अथवा चींटी के सदृश्य है / गर्व से सारे गृहस्थीचारे के भार को धारण किये है तथा उसका भार सहने में समर्थ है / पुत्र-पुत्री से ममत्व करने में बंदरिया के सदृश्य है।