Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ सम्यग्चारित्र 159 जीव का कभी भला नहीं हो सकता, पर सर्व जीव धर्म चाहते तो हैं परन्तु मोह के उदय के कारण धर्म का स्वरूप जानते नहीं। धर्म का लक्षण तो ज्ञान वैराग्य है पर मोह तथा अज्ञान के कारण यह जीव अज्ञानी हुआ सराग भाव से धर्म चाहता है तथा परम सुख की इच्छा करता है, यह बडा आश्चर्य है। यह वांछा कैसी है ? जैसे कोई अज्ञानी सर्प के मुख से अमृत प्राप्त करना चाहे अथवा जल बिलोकर घी निकालना चाहे अथवा वज्राग्नि में कमल का बीज बोकर उसकी छाया में विश्राम करना चाहे अथवा बांझ स्त्री के पुत्र के विवाह में आकाश के फूलों का सेहरा बनाकर खुद के मरने के बाद उसकी शोभा देखना चाहे तो उसका मनोरथ कैसे सिद्ध हो ? सूर्य पश्चिम में उदित हो, चंद्रमा गर्म हो, सुमेरु पर्वत हिलने लगे, समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन करे अथवा सूख जावे अथवा शिला (पत्थर) पर कमल उगें, सर्प विष रहित हो, अमृत विष रूप हो, इत्यादि इन वस्तुओं में ऐसा विपरीतपना न तो हुआ है और न ही होगा / परन्तु कदाचित ये तो विपर्यय रूप (विपरीत परिणमन रूप) हों तो हों, परन्तु सराग भाव से कदापि धर्म नहीं हो सकता, यह जिनराज की आज्ञा (वाणी) है / अतः सर्व जीव सराग भाव को छोडकर वीतराग भाव रूप परिणमन स्वीकार करो। वीतराग भाव ही धर्म है, अन्य कुछ भी धर्म नहीं है, यह नियम है / सराग भाव को ही हिंसा जानना / जितने भी धर्म के अंग हैं वे वीतराग भाव रूप हैं अथवा वीतराग भावों के लिये कारण हैं, अत: धर्म नाम प्राप्त करते हैं / जितने पाप के अंग हैं वे सराग भावों के पोषण कर्ता हैं अथवा सराग भावों के लिये कारण हैं, अतः अधर्म नाम प्राप्त करते हैं / अन्य जीवों की दया आदि बाह्य कारणों में धर्म हो अथवा न भी हो, यदि इस क्रिया में वीतराग भाव मिले (हो) तो उसमें धर्म हो पर वीतराग भाव न मिले (न हो) तो धर्म हो नहीं तथा हिंसा आदि बाह्य क्रियाओं में कषाय