Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
View full book text
________________ चतुर्थाधिकार : सम्यग्दर्शन ज्ञानानन्द तो जीव का असली (वास्तविक) स्वभाव है तथा अज्ञानता, दु:ख आदि अशुद्ध भाव हैं जो पर-द्रव्य के संयोग से होते हैं / अतः कार्य में कारण का उपचार करके उन्हें पर-भाव ही कहा जाता है / ऐसा सात तत्त्वों का स्वरूप जानना / इनमें पुण्य तथा पाप को और मिला देने पर इनको नव (9) पदार्थ कहा जाता है / सामान्य रूप से कर्म एक ही प्रकार का है, विशेषपने से पुण्य तथा पाप रूप दो प्रकार का है / इसलिए आस्रव भी पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार का है / इसप्रकार बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष के भी दो-दो भेद जानना तथा ऐसा ही नव पदार्थो का भी विशेष स्वरूप जानना / ____षटद्रव्य ही इनके मूल में हैं ऐसा जानना / काल के अतिरिक्त पांच द्रव्यों को पंचास्तिकाय कहा जाता है / उनके द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव अथवा प्रमाण-नय-निक्षेप, अनुयोग, गुणस्थान, मार्गणा में बंध, उदय, सत्ता को नाना जीवों की अपेक्षा तथा नाना काल की अपेक्षा लगाने अथवा तिरेपन (53) भावों को गुणस्थानों में (जीव के) चढ़ने-उतरने में लगाने से इत्यादि नाना प्रकार तत्त्वों का उत्तरोत्तर विशेष रूप है तथा तैसे-तैसे ही बहुत बहुत भेद हैं / निमित्त, नाम तथा आधार-आधेय, निश्चय-व्यवहार, हेय-उपादेय इत्यादि का ज्ञान में विशेष अवलोकन हो (जानने में आवें ) त्यों-त्यों श्रद्धा निर्मल होती है / इसलिये श्रद्धा में निर्मलता की कमी होने से इन्हें क्षायिक सम्यक्त्व का घातक कहा है तथा केवली एवं सिद्धों को परमक्षायिक सम्यक्त्व कहा है / अतः सम्यक्त्व की निर्मलता के लिये ज्ञान कारणरूप होने से ज्ञान को बढाना चाहिये, क्योंकि सर्व कार्यों में ज्ञान गुण प्रधान है /