Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ षष्टम अधिकार : सम्यग्चारित्र आगे सम्यग्चारित्र का स्वरूप कहते हैं / सावध योग के त्याग को चारित्र कहा जाता है। सम्यग्ज्ञान पूर्वक हुआ त्याग सम्यग्चारित्र नाम पाता है। मिथ्यात्व सहित सावध योग का त्याग हो उसे मिथ्याचारित्र कहते हैं / सम्यग्दृष्टि के श्रद्धान में वीतराग भाव है, प्रवृत्ति में कुछ राग भी है जिसका कारण चारित्रमोह है / श्रद्धान में रागभाव का कारण दर्शनमोह है / सम्यक्दृष्टि के दर्शन मोह जा चुका (उदय रूप नहीं रहा) है, इस ही लिये सम्यक्दृष्टि को श्रद्धान अपेक्षा वीतराग भाव कहा जाता है / श्रद्धान है तथा कषाय मंद है, अतः सम्यग्दृष्टि के जो अल्प राग है उसे गिना नहीं जाता, वीतराग ही कहा जाता है / यही कारण है कि सम्यक्दृष्टि को निराश्रव, निर्बन्ध कहा जावे तो कोई दोष नहीं है, विवक्षा जान लेना (समझ लेना) चाहिये। यह बात शास्त्रों में कही गयी है / मिथ्यात्व के श्रद्धान में वीतराग भाव नहीं है / वीतराग भाव हुये बिना निराश्रव, निर्बन्ध नहीं है / निराश्रव, निर्बन्ध हुये बिना सावध का त्याग कार्यकारी नहीं है / स्वर्ग आदि का तो कारण है पर मोक्ष का कारण नहीं है। अतः संसार का ही कारण कहा जाता है। जो-जो भाव संसार के कारण हैं वे-वे आस्रव भाव हैं / यह देह (आस्रव के लिये) कार्यकारी (कारण ) है / अतः सम्यक्त्व के बिना सावद्य का त्याग करते हैं वे नरक आदि के भय से करते हैं, परन्तु अन्तरंग में कोई द्रव्य इष्ट लगता है कोई अनिष्ट लगता है, इसप्रकार मिथ्यात्वी के श्रद्धान में प्रचुर राग-द्वेष हैं / सम्यक्दृष्टि पर-द्रव्य को असार जानकर छोडता है / यह पर (अन्य वस्तु) पुरुष (आत्मा) के लिये कारण नहीं है,