Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 156 ज्ञानानन्द श्रावकाचार बारह प्रकार से वस्तु का स्वरूप निरन्तर विचारना, ऐसा नहीं हैं कि एक ही बार इनका स्वरूप जानकर स्थित हो जाना। यह जीव भ्रम बुद्धि का कारण अनादि काल से ही बारह स्थानों में आसक्त हुआ है, इसलिये इसकी आसक्ती छुडाने के लिये परम वीतराग गुरु इन बारह प्रकार की भावना द्वारा इसकी आसक्ती, शक्तितः स्वभाव से विरुद्ध देखकर, छुडाने का प्रयत्न करते हैं / जैसे मदमस्त हाथी स्वच्छंद हुआ जिस स्थान पर भी अटक जाता है, वह अपने तथा पर को नहीं पहचानता हुआ बहुत हानि करता है। उस हाथी को उसका महावत चरखी, भाले आदि से बहुत मार कर झुकाता है। उसीप्रकार गुरु ज्ञान रूपी भाले की मार से संसारी जीव रूपी हाथी को विपरीत कार्यों से छुडाते हैं / उसी का वर्णन करते हैं : (1) अनित्य भावना :- प्रथम तो इस जीव ने संसार के स्वरूप को स्थिर (नित्य) मान रखा है, उसे अध्रुव (अनित्य) भावना के द्वारा संसार का अस्थिर स्वरूप दिखा कर शरीर से उदास करते हैं। ___(2) अशरण भावना :- जीव अपने माता-पिता, कुटुम्ब, राजा, देवेन्द्र आदि बहुत बलशालियों की शरण चाहता हुआ निर्भय, अमर, सुखी होना चाहता है / काल एवं कर्म से डर कर इनकी शरण की इच्छा करता है, उसे अशरण भावना के द्वारा सर्व तीन लोक में कोई उसे शरण नहीं हो सकते (शरण नहीं हैं) ऐसा दिखाते (बताते) हैं / अभय, शरण तो एक मात्र निश्चय चिद्रूप निज आत्मा ही है, ऐसा समझाते हैं। (3) संसार भावना :- इस जीव को जगत अर्थात संसार अथवा चतुर्गति के दु:खों की खबर (जानकारी) नहीं है, संसार में कैसे-कैसे दुःख हैं उन्हें इस जगत (संसार) भावना के द्वारा नरक आदि संसार में तीव्र दु:ख की वेदना का स्वरूप दिखाकर संसार के दु:खों से भयभीत संसार से उदासीन करते हैं तथा संसार के दुःखों से निर्वृति के लिये कारणभूत परमधर्म का सेवन कराते हैं।