Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ पंचम अधिकार : सम्यग्ज्ञान आगे सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहते हैं / ज्ञेय के जानने को ज्ञान कहा जाता है / वह जानना ज्ञानावरणी एवं दर्शनावरणी कर्मो के क्षयोपशम से होता है / सम्यक्त्व सहित जानने को सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। मिथ्यात्व के उदय सहित जानने को मिथ्याज्ञान कहा जाता है / यहां ज्ञान में दर्शन गर्भित जानना / सामान्यरूप से दोनों के समुदाय को ज्ञान कहते हैं / सात तत्त्वों के जानपने में मोह तथा भ्रम के न होने पर उस ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। अन्य उत्तरोत्तर पदार्थों के यथार्थ अथवा अयथार्थ जानने से उनके जानपने का नाम सम्यक् अथवा मिथ्यात्व नाम नहीं पाता / सात तत्त्व रूप मूल पदार्थों का संशय, विभ्रम, विमोह रहित जानपना ही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है / निश्चित रूप से विचारा जावे तो मूल सात तत्त्वों को जाने बिना उत्तरोत्तर तत्त्वों का स्वरूप नहीं जाना जाता / कारणविपर्यय, स्वरूप--विपर्यय रूप कमी रह जाती है / जैसे कोई पुरुष सोने को सोना कहता है, चांदी को चांदी कहता है, खरे-खोटे (असली-नकली) रुपयों की परीक्षा करता है, इत्यादि लौकिक कार्यों में बहुत से पदार्थो का स्वरूप जानता है, परन्तु कारण-विपर्यय है। क्योंकि इनका मूल कर्ता पुद्गल है, यह जानता नहीं है। ___कोई परमेश्वर को कर्ता बताता है, कोई नास्ति बताता है (अर्थात परमेश्वर है ही नहीं ऐसा कहता है), कोई पांच तत्त्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश - के मिलने से जीव नाम के पदार्थ की उत्पत्ति कहता है। वे इनका प्रमाण भिन्न-भिन्न तथा अलग-अलग जाति का बताते हैं, अत: उन्हें कारण-विपर्यय है, ऐसा जानना तथा जीव और पुद्गल मिलकर मनुष्य आदि अनेक प्रकार से समान जाति की पर्यायें बनी हैं, उन्हें एक ही वस्तु मानता है; यह भेद-विपर्यय है / दूरी पर आकाश धरती (पृथ्वी) से मिला दिखता है, पहाड छोटे दिखते हैं, ज्योतिष देवों