Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 146 ज्ञानानन्द श्रावकाचार प्रकार कहो अथवा कार्यकारी कहो, अथवा सम्यक् प्रकार कहो अथवा सत्य कहो या यथार्थ कहो सब दर्शन के ही नाम हैं। __इससे उल्टा जिसका स्वभाव हो उसे भुलाने योग्य कहो, अथवा मिथ्या प्रकार कहो अथवा अन्यथा कहो अथवा अकार्यकारी कहो अथवा अन्य प्रकार कहो, ये सब एकार्थवाची हैं / इस (उपरोक्त) प्रकार सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान हो उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं इस ही लिये यथार्थ तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है / तत्त्व तो वस्तु के स्वभाव को कहते हैं तथा अर्थ पदार्थ को कहते हैं / इसप्रकार पदार्थ तो आधार है तथा तत्त्व आधेय है / यहां मोक्ष प्राप्त होने का प्रयोजन है / इसलिये मोक्ष के लिये जो कारण रूप मोक्षमार्ग है वह रत्नत्रय है / पहला धर्म जो सम्यग्दर्शन है उसका कारण तो तत्त्वार्थ श्रद्धान है / ये तत्त्व सात प्रकार के हैं - (1) जीव (2) अजीव (3)आश्रव (4) बंध (5) संवर (6) निर्जरा (7) मोक्ष / इनमें पुण्य तथा पाप को और मिला देने पर इन्हीं को नव (9) पदार्थ कहते हैं / अतः तत्त्व कहो अथवा पदार्थ कहो - सामान्य भेद को सात तत्त्व कहा है तथा विशेष भेद को नव पदार्थ कहा है / इन (सब) का मूल आधार जीव तथा अजीव दो पदार्थ हैं / जीव तो एक ही प्रकार है तथा अजीव पांच प्रकार के हैं - (1) पुद्गल (2) धर्म (3) अधर्म (4) आकाश (5) काल - इन छह (एक जीव तथा पांच अजीव) को षट द्रव्य कहते हैं / काल को छोड देने पर शेष पांच को पंचास्तिकाय कहते हैं / इस ही लिये सात तत्त्व, नव पदार्थ, षट द्रव्य, पंचास्तिकाय का स्वरूप विशेष रूप से जानना चाहिये। इनके विशेष भेदाभेद तथा इनके ज्ञान को विज्ञान (विशेष ज्ञान) कहा है / दोनों (जीव तथा अजीव के) समुदायों के भेद को भेद-विज्ञान कहते हैं / इसी कारण जिनवाणी में सम्यग्दर्शन होने के लिये भेद-विज्ञान को कारण कहा है / अत: सर्व भव्य जीवों को ज्ञान की वृद्धि करना उचित है / जिनवाणी में