Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 144 ज्ञानानन्द श्रावकाचार आचार्य-भक्ति कहते हैं / (12) बहुश्रुत भक्ति :- उपाध्याय आदि बहुश्रुत अर्थात बहुत शास्त्रों का जिन्हें ज्ञान हो उनकी भक्ति करने को बहुश्रुत-भक्ति कहते हैं / (13) प्रवचन भक्ति :- जिनवाणी अर्थात समस्त सिद्धान्त (आगम-परमागम) ग्रन्थों की भक्ति करने को प्रवचनभक्ति कहते हैं / (14) आवश्यक परिहारिणी :- षट आवश्यकों में (के पालन में ) कभी अन्तराय (भूल) नहीं करना उसे आवश्यकपरिहारिणी कहते हैं / (15) धर्म प्रभावना :- जिस-जिस धर्म के अंग (कार्यों ) से जिनधर्म की प्रभावना हो, (उन्हें करने को) प्रभावना अंग कहते हैं। (16) प्रवचन वात्सल्य :- जिनवाणी से विशेष प्रीति हो उसे प्रवचन वात्सल्य कहते हैं / चौथे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान तक में ये सोलह कारण भावना तीर्थंकर-प्रकृति बंधने का कारण है / अतः ये सोलह प्रकार के भाव निरन्तर रखने चाहिये, इनकी विनय करना चाहिये। इनसे विशेष प्रीति रखना चाहिये। इनकी बडे उत्सव से पूजा करना अथवा कराना चाहिये, अर्घ उतारना चाहिये / इसका फल तीर्थंकर पद की प्राप्ति है / इसप्रकार सोलह कारण भावनाओं का सामान्य अर्थ संपूर्ण हुआ। दशलक्षण धर्म आगे दशलक्षण धर्म का स्वरूप लिखते हैं / (1) उत्तम-क्षमा :न क्रोध अर्थात क्रोध के अभाव को उत्तम क्षमा कहते हैं / (2) उत्तममार्दव :- मान का अभाव होने पर विनय गुण प्रकट हो उसे उत्तम मार्दव कहते हैं / (3) उत्तम-आर्जव :- कोमल परिणामों के होने को उत्तम आर्जव कहते हैं / (4) उत्तम-सत्य :- झूठ अर्थात असत्य, मनवचन-काय की प्रवृत्ति का असत्य से रहित होना उत्तम सत्य कहलाता है। __(5) उत्तम-शौच :- परधन, परस्त्री, अन्याय तथा लोभ का त्याग कर आत्मा को मंद कषायों से उज्जवल करने को उत्तम शौच कहते हैं /