Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 137 विभिन्न दोषों का स्वरूप गुणों को प्रकाशित करने वाला, अध्यात्म रस का भोगी हो। विनयवान तथा वात्सल्य अंग सहित हो। दयालु व दातार हो, शास्त्र पढने के शुभ कार्य के फल का वांछक न हो, लौकिक बडाई न चाहता हो, केवल मोक्ष की ही चाह रखता हो। मोक्ष के लिये ही स्व-पर उपदेश देने की बुद्धि वाला हो। जिनधर्म की प्रभावना करने में आसक्त चित्त हो, बहुत सज्जन हो, हृदय कोमल हो, दया जल से भीगा हो, वचन मिष्ट (एवं स्पष्ट) हो, हित-मित वचन बोलने वाला हो, शब्द ललित तथा उत्तम पुरुष हो / शास्त्र पढते समय वक्ता अपनी अंगुलियां नहीं चटकावे, आलस्य से बदन नहीं मोडे, घूमे नहीं, शब्द (बहुत) धीमे न बोले, शास्त्र से ऊंचा न बैठे, पांव पर पांव न रखे, ऊकडू न बैठे, पांव मोड कर न बैठे, शब्द का बहुत दीर्घ उच्चारण न करे तथा शब्द बहुत मंद भी न बोले / भ्रम पैदा करने वाले शब्द न बोले / अपने स्वयं के स्वार्थ के लिये श्रोताओं की खुशामद न करे। जिनवाणी में लिखे अर्थ को न छुपावे / एक भी अक्षर को छुपाने वाला महापापी होता है, अनन्त संसारी होता है / अपने स्वार्थ के पोषण के लिये जिनवाणी के अभिप्राय बिना (जिनवाणी के भाव से भिन्न) अधिक अथवा हीन (अथवा विपरीत) अर्थ प्रकाशित नहीं करे। जिस शब्द का अर्थ स्वयं को ज्ञात न हो तो अपनी प्रशंसा के लिये उस शब्द का अर्थ-अनर्थ (जैसा नहीं है वैसा) नहीं कहे। जिनदेव को भुलावे नहीं। सभा में मुख से ऐसा कहे कि इस अर्थ का मुझे ज्ञान नहीं हो पाया है, मेरी बुद्धि अल्प है, विशेष ज्ञानी के मिलने पर उससे पूछ लूंगा। विशेष ज्ञानी का मिलना न हो पाया तो जिनदेव ने जैसा देखा है वह प्रमाण है, ऐसा अभिप्राय रखे। ____ मेरी बुद्धि तुच्छ है, उस दोष के कारण तत्त्व का स्वरूप अन्य से अन्य होने में अथवा साधने में आ गया हो तो जिनदेव मुझे क्षमा करें / मेरा