Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 128 ज्ञानानन्द श्रावकाचार गिनते / मुखपछी रखते हैं और कहते हैं (कि हम यह इसलिये करते हैं कि न करने पर) पवनकाय के जीवों की हिंसा होती है, परन्तु मुख का छिद्र तो सदैव बंद ही रहता है तथा जब वे बोलते हैं तब भी मुख के आड रहती है, जिससे स्वांस निकलती नहीं, स्वांस तो नाक के छिद्रों से निकलती है, उसके तो पट्टी लगाते नहीं / मुख पट्टी पर मुख की लार से असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं उसका दोष गिनते (देखते) नहीं। जैसे एक स्त्री अपने छोटे से पुत्र को अपना शरीर पर आडा कपडा डाल कर आंचल चुसावे तथा कहे यह लडका पुरुष है इसलिये इसके स्पर्श से कुशील का दोष लगता है तथा मैं परम शीलवती हूं, अतः नाम मात्र भी पर पुरुष का स्पर्श करना मुझे उचित नहीं है। पर पति को नींद में सोता छोडकर अथवा पति की आंख चुराकर अथवा दाव-पेंच से मौका देखकर आधी रात के समय अथवा अन्य किसी समय चाहे जब, अपने घोडों के रखवाले नीच कुलीन कुबडे, महाकुरूप, निर्दय, तीव्र कषायी ऐसे निंद्य पुरुष से जाकर भोग करे तथा कभी वह स्त्री अपने प्रेमी पुरुष के पास देर सवेर पहुंचे तो वह प्रेमी परपुरुष उसे लट्ठी, मुक्के आदि से मारे तो भी प्रेमी से विनयवान होकर प्रीति ही करे। अपने कामदेव समान पति की इच्छा न करे, उसीप्रकार इन श्वेताम्बरों को जानना / किसीप्रकार मुंह से बोलने पर भी त्रस-स्थावर जीवों के परम रक्षक दिगम्बर योगीश्वर वनोपवासी, संसार-देह भोगों से उदासीन, परम वीतरागी, शुद्धोपयोगी, तरण-तारण, शान्तमूर्ति, इन्द्र आदि देवों द्वारा पूज्य, मोक्षमार्गी, जिनके दर्शन मात्र से ही ज्ञान वैराग्य की प्राप्ति हो, आपा-पर (स्व-पर) का जानपना हो, ऐसे निर्विकार निर्ग्रन्थ गुरु भी खुले मुख उपदेश क्यों देते ? उनके मुख के आगे हाथ आदि के द्वारा भी कोई आच्छादन देखा नहीं जाता। पर वे श्वेताम्बर गुरु जिस बात में कोई हिंसा नहीं होती उसका तो यत्न करते हैं / परन्तु दो चार दिन की गीली अथवा शूद्र के घर से अनछने, चर्म से स्पर्शित जल, मदिरा, मांस के संयोग से सहित वाले